भारत मे अरबो का आक्रमण

भारत में अरबों का आक्रमण

लगभग 623 ई. में हजरत मुहम्मद की मृत्यु के उपरान्त 6 वर्षों के अन्दर ही उनके उत्तराधिकारियों ने सीरिया, मिस्त्र, उत्तरी अफ्रीका, स्पेन एवं ईरान को जीत लिया। इस समय खलीफा साम्राज्य फ्रांस के लायर नामक स्थान से लेकर आक्सर एवं काबुल नदी तक फैल गया था। अपने इस विजय अभियान से प्रेरित अरबियों की ललचायी आंखें भारतीय सीमा पर पड़ी। उन्हेांने जल एवं थल दोनों मार्गों का उपयोग करते हुए भारत पर अनेक थावे बोले पर 712 ई. तक उन्हें कोई महत्त्वपूर्ण सफलता प्राप्त नहीं हुई। सिन्ध पर अरबों के आक्रमण के पीछे छिपे कारणों के विषय में विद्धानों का मानना है कि ईराक का शासक अल हज्जाज भारत की सम्पन्नता के कारण उसे जीत कर सम्पन्न बनाना चाहता था। दूसरे कारण के रूप में माना जाता है कि अरबों के कुछ जहाज, जिन्हें सिन्ध के देवल बन्दरगाह पर कुछ समुद्री लुटेंरों ने लूट लिया था, के बदले में खलीफा ने सिन्ध के राजा दाहिर से जुर्माने की मांग की। किन्तु दाहिर ने असमर्थता जताते हुए कहा कि उसका उन डाकुओं पर कोई नियंत्रण नहीं है। इस जवाब से खलीफा ने क्रुध होकर सिंध पर आक्रमण करने का निश्चय किया। लगभग 712 में हज्जाज के भतीजे एवं दामाद मुहम्मद बिन कासिम ने 17 वर्ष की अवस्था में सिंध के अभियान का सफल नेतृत्व किया। उसने देवल, नेरून, सिविस्तान जैसे कुछ महत्त्वपूर्ण दुर्गों को अपने अधिकार में कर लिया, जहां से उसके हाथ ढेर सारा लूट का माल लगा। इस जीत के बाद कासिम ने सिंध, बहमनाबाद आदि स्थानों को जीतते हुए मध्य प्रदेश की ओर प्रस्थान किया।

मुहम्मद बिन कासिम के आक्रमण (711-715 ई.)

देवल विजय: एक बड़ी सेना लेकर मुहम्मद बिन कासिम 711 ई. में देवल पर आक्रमण कर दिया। दाहिर ने अपनी अदूरदर्शिता का परिचय देते हुए देवल की रक्षा नहीं की बल्कि पश्चिमी किनारों को छोड़कर पूर्वी किनारों से बचाव की लड़ाई प्रारम्भ कर दी। दाहिर के भतीजे ने राजपूतों से मिलकर किले की रक्षा करने का प्रयास किया किन्तु असफल रहा।

नेऊन विजय: नेऊन पाकिस्तान में वर्तमान हैदराबाद के दक्षिण में स्थित इराक के समीप था। देवल के बाद मु. बिन कासिम नेऊन की ओर बढ़ा। दाहिर ने नेउर्न की रक्षा का दायित्व एक पुजारी को सौंप कर अपने बेटे जयसिंह को ब्राह्मणाबाद बुला लिया। नेऊन में बौद्धों की संख्या अधिक थी। उन्होंने मु. बिन कासिम का स्वागत किया। इस प्रकार बिना युद्ध किए ही मीर कासिम का नेऊन दुर्ग पर अधिकार हो गया।

सेहवान विजय: नेऊन के बाद मुहम्मद बिन कासिम सेहवान (सिविस्तान) की ओर बढ़ा। इस समय वहां का शासक माझरा था। इसने बिना युद्ध किए ही नगर छोड़ दिया और बिना किसी कठिनाई के सेहवान पर मु. बिन कासिम का अधिकार हो गया।

सीसम के जाटों पर विजय: सेहवान के बाद मु. बिन कासिम सीसम के जाटों पर अपना अगला आक्रमण किया। बाझरा यहीं पर मार डाला गया। जाटों ने मु. बिन कासिम की अधीनता स्वीकार कर ली।

राओर विजय: सीसम विजय के बाद कासिम राओर की ओर बढ़ा। दाहिर और मु. बिन कासिम की सेनाओं के बीच घमासान युद्ध हुआ। इसी युद्ध में दाहिर मारा गया। दाहिर के बेटे जयसिंह ने राओर दुर्ग की रक्षा का दायित्व अपनी विधवा मां पर छोड़कर ब्राह्मणावाद चला गया। दुर्ग की रक्षा करने में अपने-आप को असफल पाकर दाहिर की विधवा पत्नी ने आत्मदाह कर लिया। इसके बाद कासिम का राओर पर नियंत्रण स्थापित हो गया।

ब्राह्माणाबाद पर अधिकार: बाह्ममणाबाद की सुरक्षा का दायित्व दाहिर के पुत्र जयसिंह के ऊपर था। उसने कासिम के आक्रमण का बहादुरी के साथ सामना किया किन्तु नगर के लोगों के विश्वासघात के कारण वह पराजित हो गया और बाह्मणाबाद पर कासिम का अधिकार हो गया। कासिम ने यहां का कोष तथा दाहिर की दूसरी विधवा रानी लाडी के साथ उसकी दो पुत्रियों सूर्यदेवी तथा परमल देवी को अपने कब्जे में कर लिया।

आलोर विजय: आलोर पर विजय प्राप्त करने के बाद कासिम मुल्तान पहुंचा। यहां पर आन्तरिक कलह के कारण विश्वासघातियों ने कासिम की सहायता की। उन्होंने नगर के जलस्रोत की जानकारी अरबों को दे दी, जहां से दुर्ग निवासियों को जल की आपूर्ति की जाती थी। इससे दुर्ग के सैनिकों ने आत्मसमर्पण कर दिया। कासिम का नगर पर अधिकार हो गया। इस नगर से मीरकासिम को इतना धन मिला की उसने इसे स्वर्णनगर नाम दिया।

मुहम्मद बिन कासिम की वापसी: 714 ई. में अल-हज्जाज की और 715 र्ह- में खलीफा की मृत्यु के उपरान्त मुहम्मद बिन कासिम को वापस बुला लिया गया। सम्भवतः सिंध विजय अभियान में मुहम्मद बिन कासिम की वहां के बौद्ध भिक्षुओं ने अपने पुत्र जयसिंह को बहमनाबाद पर पुनः कब्जा करने के लिए भेजा, परन्तु सिंध के राज्यपाल जुनैद ने जयसिंह को हरा कर बंदी बना लिया ब्राह्मणावाद के पतन के बाद मुहम्मद-बिन कासिम ने दाहिर की दूसरी विधवा रानी लाडी और दाहिर की दो कन्याओं सूर्यदेवी और परमलदेवी को बन्दी बनाया। कालान्तर ने कई बार जुनैद ने भारत के आन्तरिक भागों को जीतने हेतु सेनाएं भेजी, परन्तु नागभट्ट (प्रतिहार), पुलकेशिन एवं यशोवर्मन (चालुक्य) ने इस वापस खदेड़ दिया। इस प्रकार अरबियों का शासन भारत में सिंध प्रांत तक सिमट कर रह गया। कालान्तर में उन्हें सिंध का भी त्याग करना पड़ा।

अरबों के भारत पर आक्रमण का परिणाम

अरबों के आक्रमण का भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति पर लगभग 1000 ई. तक प्रभाव रहा। प्रारम्भ में अरबियों ने कठोरता से इस्लाम धर्म को थोपने का प्रयास सिंध पर तत्कालीन शासकों के विरोध के कारण इन्हें अपनी नीति बदलनी पड़ी। सिंध पर अरबों के शासन से परस्पर दोनों संस्कृतियों के मध्य प्रतिक्रिया हुई। अरबियों की मुस्लिम संस्कृति पर भारतीय संस्कृति का काफी प्रभाव पड़ा। अरबवासियों ने चिकित्सा, दर्शनशास्त्र, नक्षत्र विज्ञान, गणित (दशमलव प्रणाली) एवं शासन प्रबंध की शिक्षा भारतीयों से ही ग्रहण की। चरक संहिता एवं पंचतंत्र ग्रंथों का अरबी में अनुवाद किया गया। बगदाद के खलीफाओं ने भारतीय विद्वानों को संरक्षण प्रदान किया। खलीफा मंसूर के समय में अरब विद्वान अपने साथ ब्रह्मागुप्त द्वारा रचित ‘ब्रह्मासिद्धांत’ एवं ‘खण्डनखाद्य’ को लेकर बगदाद गये और अल-फाजरी ने भारतीय विद्वानों के सहयोग से इन ग्रंथों का अरबी भाषा में अनुवाद किया। भारतीय सम्पर्क से अरब सबसे अधिक खगोल शास्त्र के क्षेत्र में प्रभावित हुआ। भारतीय खगोलशास्त्र के आधार पर अरबों ने इस विषय पर अनेक पुस्तकों की रचना की जिसमें सबसे प्रमुख अल-फजरी की किताब-उल-जिज है।

अरबों ने भारत में अन्य विजित प्रदेशों की तरह धर्म पर आधारित राज्य स्थापित करने करने का प्रयत्न् नहीं किया। हिन्दुओं को महत्व के पदों पर बैठाया गया। इस्लाम धर्म ने हिन्दू धर्म के प्रति सहिष्णुता का प्रदर्शन किया। अरबो की सिंध विजय का आर्थिक क्षेत्र पर भी प्रभाव पड़ा। अरब से आने वाले व्यापारियों ने पश्चिमी समुद्र एवं दक्षिण पूर्वी एशिया में अपने प्रभाव का विस्तार किया अतः यह स्वाभाविक था कि भारतीय व्यापारी उस समय की राजनीति शक्तियों पर दबाव डालते कि वे अरब व्यापारियों के प्रति सहानुभूति पूर्ण रूख अपनायें।

भारत पर तुर्की आक्रमण:

अरबों के बाद तुर्कों ने भारत पर आक्रमण किया। तुर्क चीन की उत्तरी-पिश्चमी सीमाओं पर निवास करने वाली एक असभ्य एवं बर्बर जाति थी। उनका उद्देश्य एक विशाल मुस्लिम सामा्रज्य स्थापित करना था। अलप्तगीन नामक एक तुर्क सरदार ने गजनी में स्वतन्त्र तुर्क राज्य की स्थापना की। 1977 ई. में अलप्तगीन के दादा सुबुक्तगीन ने गजनी पर अपना अधिकार कर लिया। भारत पर आक्रमण करने वाला प्रथम मुस्लिम मुहम्मद बिन कासिम (अरबी) था जबकि भारत पर आक्रमण करने वाला प्रथम तुर्की मुसलमान सुबुक्तगीन था। सुबुक्तगीन से अपने राज्य को होने वाले भावी खतरे का पूर्वानुमान लगाते हुए दूरदर्शी हिन्दूशाही वंश के शासक जयपाल ने दो बार उस पर आक्रमण किया, किन्तु दुर्भाग्यवश प्रकृति की भयावह लीलाओं के कारण उसे पराजय का मुंह देखना पड़ा। अपमान एवं क्षोभ से संतप्त जयपाल ने आत्महत्या कर ली। 1986 ई. में सुबुक्तगीन ने हिन्दुशही राजवंश के राजा जयपाल के खिलाफ एक संघर्ष में भाग लिया, जिसमें जयपाल की पराजय हुई। सुबुक्तगीन के मरने से पूर्व उसके राज्य सीमायें अफगनिस्तान, बल्ख एवं पश्चिमोत्तर भारत तक फैली थी।

सुबुक्तगीन की मृत्यु के बाद उसका पुत्र एवं उत्तराधिकारी महमूद गजनवी गजनी की गद्दी पर बैठ। ‘तारीख ए गुजीदा’ के अनुसार महमूद ने सीस्तान के राजा खलफ बिन अहमद को पराजित कर सुल्तान की उपाधि धारण की। इतिहासविदों के अनुसार सुल्तान की उपाधि धारण करने वाला महमूद पहला तुर्क शासक था। महमूद ने बगदाद के खलीफा से ‘यामीनुद्दौला तथा ‘अमीन-एल-मिल्लाह’ उपाधि प्राप्त करते समय प्रतिज्ञा की थी कि वह प्रति वर्ष भारत पर एक आक्रमण करेगा। इस्लाम धर्म के प्रचार और धन प्राप्ति के उद्देश्य से उसने भारत पर 17 बार आक्रमण किये। इलियट के अनुसार ये सारे आक्रमण 1001 से 1026 ई. तक किये गये। अपने भारतीय आक्रमणें के समय महमूद ने ‘जेहाद’ का नारा दिया और साथ ही अपना नाम ‘बुत शिकन’ रखा। हालांकि इतिहासाकार महमूद गजनवी को मुस्लिम इतिहास में प्रथम सुल्तान मानते हैं किन्तु सिक्कों पर उसकी उपाधि केवल ‘अमीर महमूद’ मिलती है।

महमूद गजनवी के आक्रमण के समय भारत की दशा

10वीं शताब्दी ई. के अन्त तक भारत अपनी बाहरी सुरक्षा-प्राचीन जाबुलिस्तान तथा अफगनिस्तान खो चुका परिणामस्वरूप इस मार्ग द्वारा होकर भारत पर सीधे आक्रमण किया जा सकता था। इस समय भारत में राजपूत राजाओं का शासन था।

काबुल एवं पंजाब का हिन्दुशाही राज्य: महमूद गजनवी के आक्रमण के समय पंजाब एवं काबुल में हिन्दुशाही वंश का शासन था। यह राज्य चिनाब नदी के हिन्दुकुश तक फैला हुआ था। इस राज्य के स्वामी बाह्मण राजवंश के शहिया अथवा हिन्दुशाह थे। इसकी राजधानी उद्भाण्डपुर थी। महमूद गजनवी के आक्रमण के समय यहां का शासक जयपाल था।

मुल्तान: यह हिन्दुशाही राज्य के दक्षिण में स्थित था। यहां का शासन कट्टरपंथी शिया मुसलमानों के हाथ में था। महमूद गजनवी के आक्रमण के समय यहां का शासक फतेह दाऊद था।

सिन्ध: अरबों के आक्रमण के समय से ही सिन्ध पर उनका आधिपत्य था। महमूद गजनवी के आक्रमण के समय सिन्ध प्रांत में अरबों का शासन था।

कश्मीर का लोहार वंश: महमूद गजनवी के सिंहासनारूढ़ के समय कश्मीर की शासिका रानी दिद्दार थी। 1003 ई. में दिद्दार की मृत्यु के बाद संग्रामराज गद्दी पर बैठा। उसने लोहार वंश की स्थापना की।

कन्नौज के प्रतिहार: महमूद गजनवी के आक्रमण के समय कन्नौज पर प्रतिहारों का शासन था। प्रतिहारों की राजधानी कन्नौज थी। सबसे पहले बंगाल के राजा धर्ममाल ने इस नगर पर आक्रमण किया तथा कुछ वर्षों तक शासन किया। महमूद गजनवी के आक्रमण (1018 ई.) के समय यहां का शासक राज्यपाल था। उसने राजधानी कन्नौज से बारी में स्थानान्तरित किया था।

बंगाल का पाल वंश: पाल वंश की स्थापना 750 ई. में गोपाल ने की थी। इस वंश का महत्त्वपूर्ण शासक देवपाल था। महमूद गजनवी के आक्रमण के समय यहां का शासक महीपाल प्रथम (992-1026 ई.) था।

दिल्ली के तोमर: तोमर राजपूतों की एक शाखा थे। तोमर शासक अनंगपाल दिल्ली नगर का संस्थापक था।

शाकम्भरी के चौहान: प्रतिहार राज्यों के विघटन के बाद जिन राजपूतों का उदय हुआ था उनमें अजमेर के शाकम्भरी के चौहान प्रमुख थे। पृथ्वीराज चौहान इस वंश का सबसे महान शासक था तथा उसकी शत्रुता कन्नौज के राजा जयचन्द्र से थी।

मालवा का परमार वंश: इस वंश की स्थापना नवीं शताब्दी ई. वी- के पूर्वार्द्ध में कृष्णराज ने किया था। इस वंश का सबसे महत्वपूर्ण शासक राजा भोज था। यहां महमूद गजनवी का समकालीन शासक सिंधुराज था।

गुजरात का चालुक्य वंश: महमूद गजनवी के आक्रमण के समय गुजरात पर चालुक्यों का शासन था। इस काल में चालुक्य वंश के चार शासक हुए-चामुण्डराज (997-1009 ई.), वल्लभ राज (1009 ई.), दुर्लभ राज (100-24 ई.) तथा भीम प्रथम (1024-64 ई.)।

बुंदेलखण्ड के चंदेल: महमूद गजनवी के आक्रमण के समय बुन्देलखंड में चंदेलों का शासन था। उस समय बुंदेलखण्ड की राजधानी खजुराहो थी।

दक्षिण भारत: दक्षिण भारत में अनेक राजवंशों का शासन था। 11वीं शताब्दी के आरम्भ में यहां की राजनीति पर चोलों और चालुक्यों का वर्चस्व था। महमूद गजनवी के आक्रमण के समय दक्षिण के दो राज्य प्रमुख थे-

  1. परवर्ती चालुक्य और
  2. चोल।

चोल शसकों में राजराज प्रथम तथा राजेन्द्र प्रथम (1014-44 ई.) तथा जयसिंह द्वितीय और वेंगी के चालुक्य शासकों में शक्तिवर्मन प्रथम महमूद गजनवी का समकालीन थे।

महमूद गजनवी के भारत पर आक्रमण (1001-1026 ई.)

999 ई. में जब महमूद गजनवी सिंहासन पर बैठा तो उसने प्रत्येक वर्ष भारत पर आक्रमण करने की प्रतिज्ञा की। उसने भारत पर कितनी बार आक्रमण किया, यह स्पष्ट नहीं है। किन्तु सर हेनरी इलियट ने महमूद गजनवी के 17 आक्रमणों का वर्णन किया है।

प्रथम आक्रमण (1001 ई.): महमूद गजनवी ने अपना आक्रमण 1001 ई. में भारत के सीमावर्ती नगरों पर किया। पर यहां उसे कोई विशेष समफलता नहीं मिली।

दूसरा आक्रमण (1001-1002 ई.): अपने दूसरे अभियान के अनतर्गत महमूद गजनवी ने सीमांत प्रदेशों के शासन जयपाल के विरुद्ध युद्ध किया। उसकी राजधानी बैहिन्द पर अधिकार कर लिया। जयपाल इस पराजय के अपमान को सहन नहीं कर सका और आग में जलकर आत्महत्या कर लिया।

तीसरा आक्रमण (1004 ई.): महमूद गजनवी ने कच्छ के शासक वाजिरा को दण्डित करने के लिए आक्रमण किया। महमूद के भय के कारण वाजिरा सिन्धु नदी के किनारें जंगल में शरण लेने को भागा और अन्त में उसने आत्महत्या कर ली।

चौथा आक्रमण (1005 ई.): पंजाब में ओहिन्द पर महमूद गजनवी ने जयपाल के पौत्र सुखपाल को नियुक्त किया था। सुखपाल ने इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया था और उसे नौशाशाह कहा जाने लगा था। 1007 ई. में सुखपाल ने अपनी स्वतंत्रता की घोषणा कर दी थी। महमूद गजनवी ने ओहिन्द पर आक्रमण किया और नौशाशाह को बन्दी बना लिया गया।

छठा आक्रमण (1008 ई.): महमूद गजनवी ने 1008 ई. अपने इस अभियान के अन्तर्गत पहले आनन्दपाल को पराजित किया। बाद में उसने इसी वर्ष कांगड़ी पहाड़ी में स्थित नागरकोट पर आक्रमण किया। इस आक्रमण में महमूद को अपार धन की प्राप्ति हुई।

सातवां आक्रमण (1009 ई.): इस आक्रमण के अंतर्गत महमूद गजनवी ने अलवर राज्य के नारायणपुर पर विजय प्राप्त की।

आठवां आक्रमण (1010 ई.): महमूद का आठवां आक्रमण मुल्तान पर था। वहां के शासक दाऊद को पराजित कर उसने मुल्तान के शासन को सदा के लिए अपने अधीन कर लिया।

नौवां आक्रमण (1013 ई.): अपने नवें अभियान के अन्तर्गत महमूद गजनवी ने थानेश्वर पर आक्रमण किया।

दसवां आक्रमण (1013 ई.): महमूद गजनवी ने अपना दसवां आक्रमण नन्दशाह पर किया। हिन्दूशाही शासक आनन्दपाल ने नन्दशाह को अपनी नयी राजधानी बनाया था। वहां का शासक त्रिलोचनपाल था। त्रिलोचनपाल वहां से भाग कर कश्मीर में शरण लिया। तुर्कों ने नन्दशाह में लूट-पाट की।

ग्यारहवां आक्रमण (1015 ई.): महमूद का यह आक्रमण त्रिलोचन के पुत्र भीमपाल के विरुद्ध था जो कश्मीर पर शासन कर रहा था। युद्ध में भीमपाल पराजित हुआ।

बारहवां आक्रमण (1018 ई.): अपने बारहवें अभियान में महमूद गजनवी ने कन्नौज पर आक्रमण किया। उसने बुंलदशहर के शासक हरदत्त को पराजित किया। उसने महाबन के शासक बुलाचंद पर भी आक्रमण किया। 1019 ई. में उसने पुनः कन्नौज पर आक्रमण किया। वहां के शासक राज्यपाल ने बिना युद्ध किए ही आत्मसमर्पण कर दिया। राज्यपाल द्वारा इस आत्मसमर्पण से कालिंजर का चंदेल शासक क्रोधित हो गया। उसने ग्वालियर के शासक के साथ संधि कर कन्नौज पर आक्रमण कर दिया और राज्यपाल को मार डाला।

तेरहवां आक्रमण (1020 ई.): महमूद का तेरहवां आक्रमण 1020 ई. में हुआ था। इस अभियान में उसने बारी, बुंदेलखण्ड, किरात तथा लोहकोट आदि को जीत लिया।

चौदहवां आक्रमण (1021 ई.): अपने चौदहवें आक्रमण के दौरान महमूद ने ग्वालियर तथा कालिंजर पर आक्रमण किया। कालिंजर के शासक गोण्डा ने विवश होकर सांधि कर ली।

पन्द्रहवां आक्रमण (1025 ई.): इस अभियान में महमूद गजनवी ने लोदोर्ग (जैसलमेर), चिकलोदर (गुजरात) तथा अन्हिलवाड़ा (गुजरात) पर विजय स्थापित की।

सोलहवां आक्रमण (1025 ई.): इस 16वें अभियान में महमूद गजनवी ने सोमनाथ को अपना निशाना बनाया। उसके सभी अभियानों में यह अभियान सर्वाधिक महत्वपूर्ण था। सोमनाथ पर विजय प्राप्त करने के बाद उसने वहां के प्रसिद्ध मंदिर को तोड़ दिया तथा अपार धन प्राप्त किया। यह मंदिर गुजरात में समुद्र तट पर स्थित अपनी अपार संपत्ति के लिए प्रसिद्ध था। इस मंदिर को लूटते समय महमूद ने लगभग 50,000 ब्राह्मणों एवं हिन्दुओं का कत्ल कर दिया था। पंजाब के बाहर किया किया गया महमूद का यह अंतिम आक्रमण था।

सत्रवहां आक्रमण (1027 ई.): यह महमूद गजनवी का अन्तिम आक्रमण था। यह आक्रमण सिंध और मुल्तान के तटवर्ती क्षेत्रें के जाटों के विरुद्ध था। इसमें जाट पराजित हुए।

महमूद के भारतीय आक्रमण का वास्तविक उद्देश्य धन की प्राप्ति था। वह एक मूर्तिभंजक आक्रमणकारी था। महमूद की सेना में सेवंदराय एवं तिलक जैसे हिन्दू उच्च पदों पर आसीन व्यक्ति थे। महमूद के भारत आक्रमण के समय उसके साथ प्रसिद्ध इतिहासविद्, गणितज्ञ, भूगोलवेत्ता, खगोल एवं दर्शन शास्त्र का ज्ञाता तथा ‘किताबुल हिन्द’ का लेखक अलबरूनी भारत आया। अलबरूनी महमूद का दरबारी कवि था। तहकीक-ए-हिन्द’ पुस्तक में उसने भारत का विवरण लिखा है। इसके अतिरिक्त इतिहासकार उतबी’ , तारीख-ए-सुबुक्तगीन का लेखक बैहाकी’ भी उसके साथ आये। बैहाकी को इतिहासकार लेनपूल ने पूर्वी पेप्स’ की उपाधि प्रदान की है। शाहनामा’ का लेखक फिरदौसी’, फारस का कवि जारी, खुरासानी विद्वान तुसी, महान् शिक्षक और विद्धान अस्जदी और फारूखी आदि दरबारी कवि थे।

 

मुहम्मद गोरी एवं भारत पर आक्रमण

शिहाबुद्दीन उर्फ मुईजुद्दीन गोरी ने भारत में तुर्क राज्य की स्थापना की। गजनी और हिरात के मध्य स्थित छोटा पहाड़ी प्रदेश गोर पहले महमूद गजनवी के कब्जे में था। गोर में ‘शंसबनी वंश’ सबसे प्रधान वंश था। मुहम्मद गोरी ने भी भारत पर अनेक आक्रमण किये। उसने प्रथम आक्रमण 1175 ई. में मुल्तान के विरुद्ध किया। एक दूसरे आक्रमण के अन्तर्गत गोरी ने 1178 ई. में गुजरात पर आक्रमण किया। यहां पर सोलंकी वंश (चालुक्य) का शासन था। इसी वंश के भीम द्वितीय (मूलराज द्वितीय) ने मुहम्मद गोरी को आबू पर्वत के समीप परास्त किया। सम्भवतः यह मुहम्मद गोरी की प्रथम भारतीय पराजय थी। इसके बाद 1179-86 ई. के बीच उसने पंजाब पर आक्रमण कर विजय प्राप्त की। 1179 ई. में उसने पेशावर को तथा 1185 ई. में स्यालकोट को जीता। 1191 ई. में पृथ्वीराज चौहान के साथ गोरी की भिड़न्त तराइन के मैदान में हुई। इस युद्ध में गोरी बुरी तरह परास्त हुआ। इस युद्ध को तराईन का प्रथम युद्ध’ कहा गया है। तराईन का द्वितीय युद्ध’ 1192 ई. में तराईन के मैदान में हुआ, पर इस युद्ध का परिणाम मुहम्मद गोरी के पक्ष में रहा तथा इसके उपरांत पृथ्वीराज चौहान की हत्या कर दी गई। 1194 ई. में प्रसिद्ध चन्दावर का युद्ध मुहम्मद गोरी एवं राजपूत नरेश जयचन्द्र के बीच लड़ा गया। जयचन्द्र की पराजय के उपरान्त उसकी हत्या कर दी गईं जयचन्द्र को पराजित करने के उपरान्त मुहम्मद गोरी अपने विजित प्रदेशों की जिम्मेदारी कुतुबुद्दीन ऐबक को सौंपकर वापस गजनी चला गया। मुहम्मद गोरी की भारतीय विजयों तथा नवस्थापित तुर्की राज्य का प्रत्यक्ष विवरण मिनहाज की रचना तबकात-ए-नासिरी’ में मिलता हैं ऐबक ने अपनी महत्त्वपर्ण विजय के अन्तर्गत 1194 ई. में अजमेर को जीतकर यहां पर स्थित जैन मंदिर एवं संस्कृत विश्वविद्यालय को नष्ट कर उनके मलवे पर क्रमशः कुव्वत-उल-इस्लाम’ एवं ढाई दिन के झोपड़े’ का निर्माण करवाया। ऐबक ने 1202-03 र्ह- में बुन्देलखण्ड के मजबूत कालिंजर के किले को जीता। 1197 से 1205 ई. के मध्य ऐबक ने बंगाल एवं बिहार पर आक्रमण कर उदण्डपुर, बिहार, विक्रमशिला एवं नालन्दा विश्वद्यिालय पर अधिकार कर लिया।

1205 ई. में मुहम्मद गोरी पुनः भारत आया और इस बार उसका मुकाबला खोक्खरों से हुआ। उसने खोक्खरों को पराजित कर उनका बुरी तरह कत्ल किया। इस विजय के बाद मुहम्मद गोरी जब वापस गजनी जा रहा था तो मार्ग में 13 मार्च, 1206 को उसकी हत्या कर दी गई। अन्ततः उसके शव को गजनी ले जाकर दफनाया गया। गोरी की मृत्यु के बाद उसने गुलाम सरदार कुतुबुद्दीन ऐबक ने 1206 ई. में गुलाम वंश की स्थापना की।

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