वैदिक संस्कृति (Vaidik sanskriti)

वैदिक संस्कृति (Vaidik sanskriti)

 

ऋग्वैदिक काल (1500-1000 ई.पू.)

  • पुरातात्विक साक्ष्य – OCP – गेरूवर्णी मृद्भांड प्राप्त होते हैं। खुदाई के स्थलों से मिली कुछ सामग्री जैसे कि पंजाब के तीन स्थलों एवं भगवानपुरा में 13 कमरों वाला एक मकान।
  • बोगजकोई (मितन्नी) अभिलेख (1400 ई.पूर्व): इसमें हित्ती और मितन्नी राजा के मध्य हुई संधि के साक्ष्य के रूप में इन्द्र, मित्र, वरूण, नासात्य का उल्लेख जो वैदिक देवता के रूप में प्रचलित हुए।
  • साहित्यिक साक्ष्य: ऋग्वेद, इसके दस मंडल हैं जिसमें कुछ 1028 सूक्त हैं जिसमें दूसरा सबसे प्राचीन एवं दूसरे से सातवें तक प्राचीन मंडल हैं जिसे गोत्र मंडल कहा जाता है।
  • आर्य कहीं से भी आए हों, जिस प्रदेश में वे निर्दिष्ट काल में मौजूद थे वहां से विभिन्न चरणों में पहुंचे थे। वे कोई एक धार्मिक या नस्लीय समुदाय के नहीं बल्कि एक भाषा समुदाय के लोग थे जिनका केेन्द्रीय स्थल बृह्मवर्त प्रदेश था। इसका विस्तार सतलज से यमुना नदी के बीच था। इसकी पूर्वी सीमा तिब्बत और हिमाचल, पश्चिमी, अफगानिस्तान तथा उत्तरी, तुर्कमेनिस्तान एवं दक्षिणी सीमा अरावली थी।
  • आर्यो के सबसे महत्वपूर्ण कबीले तुत्सु वर्ग से भरत सम्बद्ध था जिसने पुरूष्णी (रावी) नदी के तट पर दसराज्ञ युद्ध में विजय प्राप्त किया, जिसमें विशिष्ट इसके पुरोहित थे। विश्वामित्र प्रतिद्वंद्वी सेना के पुराहित थे, यद्यपि आरंभ में विश्वामित्र भी भरत कबीला के ही साथ थे। ऋग्वेद में पंचजन के रूप में आर्यो के पांच कबीलों की पहचान की गयी है। पुरू, यदुं और तुर्वस, अणु, और द्रहु। इन पांचों के आलावा पांच अनार्य कबीले थे- अकीन्न, पक्थ, भलानश, विषाणीन, शिवि।
  • आर्यो का भौगोलिक ज्ञान: इसके अलावा अपया, दृषद्वती (चौतांग), सरयू, यमुना, गंगा की चर्चा है। किंतु सबसे महत्वपूर्ण सिंधु नदी थी जिसका उल्लेख सर्वाधिक बार किया गया है। सबसे पवित्र नदी सरस्वती नदी थी जिसे नदीतमा कहा गया है एवं इसे नदियों की माता कहा जाता था। सम्भवतः इस नदी के तट मंत्रें की रचना की जाती थीं।
  • समुद्र: ऋग्वेद चार समुद्रों की चर्चा है। इसमें शायद दक्षिणी क्षेत्र के राजस्थान के समुद्र से इनका परिचय तर्कसंगत प्रतीत होता है। समुद्री व्यापार की भी चर्चा है। यद्यपि समुद्र से सामान्यतया विशाल जलराशि का ही तात्पर्य लगाया जाता है।
  • पर्वत: आर्य लोग हिमवंत (हिमालय), मूजवंत (जहां से सोमरस का पौधा मिलता था) से परिचित थे। उत्तर वैदिक काल में मैनाक, कौंच्च और त्रिककुद का उल्लेख भी प्राप्त होता है ये तीनों पूर्वी हिमालय में थे। उत्तर वैदिक काल में ही विंध्याचल पर्वत का उल्लेख किया गया है।
  • ऋग्वैदिक समाज: ऋग्वैदिक समाज आर्यो के द्वारा अनार्यो पर विजय पर आधारित था, जिसमें विजेताओं को दास एवं दस्यु से घृणा करते पाते हैं। आर्य गौर वर्ण के लोग थे और सम्भवतः दास उन्हीं के समूह के थे, जो विभिन्न आंरभिक चरणों में आए लोग रहे होंगे, किंतु इनका कुछ हद तक अनार्यो से तालमेल हो गया था। अगस्य ऋषि को आर्य एवं अनार्य के मध्य समन्वयकर्ता के रूप में जाना जाता है।
  • आर्यो का आरंभिक जीवन कबीलाई था, जो कुल अथवा गृह, ग्राम, विशू एवं जन् और संभवतः राष्ट्र में विभाजित था। व्यावहारिक स्तर पर जन को कबीला का द्योतक है का महत्व सर्वाधिक रहा होगा क्योंकि इसका उल्लेख सर्वाधिक (275 बार) पाते हैं। विश् जनता का द्योतक माना जाता है।
  • उत्पादन में अधिशेष के साथ ही योद्धा वर्ग, पुरोहित एवं अन्य का विभाजन आरंभ हुआ। तात्पर्य है कि आर्थिक उत्पादन के साथ ही व्यक्तिगत संपत्ति की अवधारणा आरंभ होती है एवं लूट जो कि ऋग्वैदिक काल में आय का स्वीकृत स्रोत था, पर नियंत्रण की कवायद आरंभ हुई और इस तरह से वर्ण व्यवस्था की शुरूआत होती है।
  • पुरूष सूक्त में पहली बार प्रजापति के विभिन्न अंगों से चार वर्णो बृह्मण (मुख), राजन्रू (हाथ), वैश्य (उदर) एवं शूद्र (पैर) की उत्पत्ति का पता चलता है। ऋग्वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था में पदक्रम तो स्पष्ट था पर यह व्यवस्था कर्म पर आधारित थी।
  • स्त्री-पुरूष संबंध: स्त्री-पुरूष में पुरूष के वरीयता स्पष्ट थी किंतु कालान्तर में स्त्रियों की दशा में जो गिरावट पाते हैं वह बुराईयां समाज में नहीं थीं। परिवार में मुखिया की स्पष्ट प्रधानता थी और पिता अपनी संतान को सजा देने का अधिकार रखता था। पुत्री की तुलना में देवताओं से पुत्र की मांग की जाती थी। जयेष्ठाधिकार का सूत्र यहां स्पष्ट होने लगा है क्योंकि सम्पत्ति के विभाजन में ज्येष्ठ पुत्र बड़ा हिस्सा पाता था।
  • स्त्रियों के विवाह की उम्र17 वर्ष थी। स्पष्टतया बाल विवाह प्रचलित नहीं था एवं स्त्रियों को विवाह के पूर्व पुरूष से मिलने की इजाजत थी। नियोग प्रथा से स्पष्ट है कि विधवा विवाह स्वीकृत था एवं सती प्रथा का संकेत नहीं मिलता है। सामान्यतया एक पतित्व एवं एक पत्नित्व को ही बेहतर माना गया है लेकिन इसके कुछ अपवाद भी मिलते हैं।
  • स्त्रियों को उपनयन संस्कार का अधिकार था एवं कुछ विदुषी महिलाओं का नाम लिया जा सकता है जिन्हें ऋषिका या बृह्मवादिनी कहा जाता था। उदाहरण स्वरूप घोषा, लोपामुद्रा, विश्वावरा, सिक्ता, कक्षावृत्ति का नाम लिया जा सकता है। अमाजू (वैसी स्त्रियां जो जीवनपर्यन्त विवाह नहीं करती थी) पिता की संम्पत्ति की हिस्सेदार होती थीं।
  • स्त्रियां पति के साथ यज्ञ एवं उत्सवों में भागीदारी करती थीं, देवसमूह में भी उन्हें स्थान प्राप्त था लेकिन परूषों की प्रधानता थी। राजनीतिक रूप से भी स्त्रियां सशक्त नहीं होंगी-क्योंकि वह सभा एवं समिति में भागीदारी करती थीं। विवाह एक संस्कार था जो ऋग्वेद के विवाह सूक्त से स्पष्ट होता है, अनुलोम एवं प्रतिलोम विवाह के कुछ उदाहरण मिलते हैं।
  • वस्त्र आभूषण: ऋग्वेद की वसन (वस्त्र) में अधिवास (ऊपर के शरीर का वस्त्र) तथा वासान (निचले अंग का) का उल्लेख मिलता है। अथर्ववेद से नीवी का उल्लेख मिलता है जो अंदर का वस्त्र रहा होगा। ऊन, सूत एवं मृगचर्म का वस्त्र के साधन के रूप में प्रयुक्त किया जाता होगा एवं ऊन का इस्तेमाल सर्वाधिक होता था। पुरूष दाढ़ी बनाते थे एवं बालों का जूड़ा बनाते थे। स्त्रियां चोटी बनाती थीं। निष्क (गले का आभूषण), रूक्म, प्रर्वत आदि आभूषण से सम्बद्ध शब्द थे।
  • खान-पान: शाकाहार एवं मांसाहार दोनों ही तरह के भोजन का प्रचलन था। अश्वमेध यज्ञ के बाद घोड़े का मांस खाया जाता था एवं गाय को अघन्या कहा गया है जिसका मांस भक्षण सामान्यतः निषिद्ध था। गाय की हत्या के लिए कठोर दण्ड का प्रावधान था, जैसे कि कभी-कभी मृत्युदंड का भी संकेत मिलता है। रामशरण शर्मा ने गोध्न से ऐसे अतिथि का अर्थ लगाया है जिसका स्वागत गौमांस से किया जाता था, किंतु आर्यो का प्रिय भोजन शाकाहार ही था और वह भी दूध एवं इससे निर्मित वस्तु जैसेः घृत, नवनीत, अमिक्षा, छाछ, दही आदि रहा होगा।
  • पेय के रूप में सोमरस एवं सुरा का प्रयोग होता था, जिसमें सोमरस जो मूजवंत पर्वत पर पाया जाता था, यज्ञ के अवसर पर पीया जाने वाला मादक द्रव्य था जबकि सुरा सामान्य अवसरों पर प्रयुक्त होता था।
  • मनोरंजन: संगीत, नृत्य, शिकार, पाशा, जुआ, रथ दौड़, आदि के माध्यम से जीवन की एकरसता समाप्त की जाती थी।
  • स्वास्थय: व्याधि के लिए समान रूप से सक्ष्म शब्द प्रयुक्त होता था। अश्विनों को दिव्य चिकित्सक माना जाता था। ऋग्वेद में ही सम्भवतः शल्य चिकित्सा भी अस्तित्व में आ गई थी।

ऋग्वैदिक धर्म

  • ऋग्वैदिक लोग पशु एवं सन्तान प्राप्ति के लिए एवं विपदा से संरक्षण के लिए अन्यान्य देवताओं की पूजा करते थे। इनका धर्म प्रवृत्ति परक था जो बौद्धों के निवृत्ति मार्ग से अलग था, क्योंकि वैदिक लोग सांसारिक उन्नति को आवश्यक मानते थे एवं संसार को दुःखमूलक मानने के बजाय “सुखदा” से प्रेरित होकर प्रारंभ में सामूहिक स्तर पर और बाद में व्यक्तिगत स्तर पर पूजा-अर्चना करते थे। इन्होंने उपयोगितावादी दृष्टिकोण के तहत प्रकृति का मानवीकरण करते हुए उन्हें दैवी गुणों से सम्पन्न कर दिया। यद्यपि पशु पूजा के भी कुछ उदाहरण मिलते हैं।
  • वैदिक देवगण में महत्व के आधार पर देवताओं की स्तुति की गई है और किसी देवता की ज्यादा, तो किसी की कम स्तुति है, किंतु इनमें पदसोपान की व्यवस्था नहीं थी। पुनः जीवन का रहस्य का उदय तथा मृत्योपरांत जीवन की परिकल्पना अस्पष्ट है।

प्रमुख देवता

  • द्यौस: आदि देवता थे, इनके बाद पृथ्वी पूजन आरंभ हुआ होगा। इसीलिए दोनों को संयुक्त रूप से द्यावा-पृथ्वी के नाम से जाना जाता था।
  • इन्द्र: सबसे महत्वपूर्ण देवता थे, जो वज्र के साथ संघर्ष करते वक्त आर्य सेना का नेतृत्व करते थे, इसीलिए इन्हें किला ध्वंसक या फिर किला के राजा के तौर पर पुरंदर कहा जाता था।
  • अग्निः अग्नि, देवता एवं मनुष्य के बीच की कड़ी के रूप में पूजे जाते थे। इनका महत्व धूप-दीप-नैवैध को धुआं के माध्यम से देवताओं तक पहुंचाने के लिए एवं लौकिक रूप से जंगलों की सफाई के लिए विशेष रूप से रहा होगा। प्रत्येक गृह में प्रज्जवलित होने की वजह से इन्हें अतिथि देव भी कहा जाता था। अग्नि ही मृतकों को पितृ एवं देवलोक में मृतकों के वाहक का कार्य करती थी।
  • वरूण (जल देवता)/अहुरमज्दा: यद्यपि इनका नामोल्लेख सिर्फ 30 बार हुआ लेकिन इन्हें इन्द्र के बाद का महत्वपूर्ण देवता माना जाता था जो सर्वद्रष्टा एवं सर्वव्यापी थे। इन्हें पाशा फेंककर ऋत् की रक्षा करते हुए नैतिक नियमों को संरक्षित करना होता था, जिस आधार पर वरूण को ऋतस्यगोपा कहा जाता था। इन्हें संतुष्ट करने के लिए यज्ञ एवं बलि ही काफी नहीं था बल्कि इसके लिए नैतिक नियमों का पालन अनिवार्य था। वरूण सही माने में इन्द्र के समान भ्रष्ट जीवन आचरण कभी नहीं करते थे। ऋत् का पालन करने के लिए सभी जगह अपना गुप्तचर भेजते थे। वरूण को असुर भी कहा जाता था जो अवेस्ता के देवता अहूरमज्दा के समान थे।
  • मित्र: इन्हें प्रतिज्ञा का देवता माना जाता था, जिन्हें वरूण्ण का मित्र एवं जल को उनका सहयोगी माना जाता था।
  • सोम: औषधि एवं वनस्पति के देवता, जो स्वर्ग में बसते थे। इन्हें चंद्रमा से भी संबंधित माना जाता था। सोमरस जो अमृत के समान माना जाता था, के समान ही सोम, प्रफुल्लता एवं आनंद का देवता माना जाता था। 14 सूक्तों में चर्चा की गई है।
  • सूर्य: ज्वालामय रथ पर सवार देवता। प्रकाश देवता सवितृ भी सूर्य के ही एक रूप थे। गायत्री मंत्र इन्हें ही समर्पित है जिसे वेद मंत्रें में पवित्रतम माना जाता है। इन्हें सर्वदर्शी और स्पश कहा गया है।
  • पूषण: यह भी सूर्यदेव ही हैं, जो आकाश में विचरण करते हुए भटके हुए यात्रियों को मार्ग दिखाते थे। कालान्तर में पूषण को शूद्र का देवता मान लिया गया।
  • अश्विन्: इन्हें नासात्य भी कहा जाता था। इनके कुछ विशिष्ट कार्य- चिकित्सा, दुर्घटनाग्रस्त नाविकों की रक्षा, अपाहिजों को कृत्रिम पांव प्रदान करना, युवतियों के लिए वर खोजना। इन्होंने च्यवन ऋषि को फिर से जवान बना दिया था।
  • रूद्र: इन्हें झंझा (आंधी) का प्रतीक माना जाता था तथा इनका आह्यन महामारी एवं विनाश से बचने के लिए किया जाता था।
  • विष्णु: ये यज्ञ से संबद्ध एक गौण देवता थे, जिन्होंने तीन कदम में पूरी पृथ्वी को नाप लिया था।
  • इसके साथ कुछ देवियां भी थीं जिनका महत्व व दर्जा पुरूष देवता से कम था जैसेः ऊषा (इसका रथ इन्द्र ने तोड़कर पराजित किया एवं अपमानित किया था।), अदिति (देवताओं की माता), निशा (रात्रि), अरण्यणि (जंगल), इला (आराधना की देवी), पुरमधि (उर्वरता की देवी), दिशान् (वनस्पति देवी)।
  • इस तरह से वैदिक धर्म बहुदेववाद पर टिका था, जिसमें 33 देवताओं की आराधना की जाती थी। इन्हें इसके आलावा ऋग्वेद में एक जगह कहा गया है कि “एकम् सत्य विप्रा बहुधा वदन्ति”। इस आधार पर कहा जाता है कि क्रमशः ऋग्वैदिक काल में ही एकेश्वरवाद का संकेत स्पष्ट होने लगा था। कालान्तर में दयानंद सरस्वती ने दावा किया कि ऋग्वैदिक काल में एकेश्वरवाद ही था एवं पुरूषसूक्त में जिस प्रजापति की संकल्पना पाते हैं उसे ही उत्तरवैदिक काल में सृष्टि का स्रोत मान लिया गया। जो भी हो वैदिक काल के आरंभिक चरण में यज्ञ की तुलना में प्रार्थना का ही विशेष महत्व था और यज्ञों के मंत्रेच्चारण की जादुई शक्ति की संकल्पना अभी विकसित नहीं हुई थी।

ऋग्वैदिक अर्थव्यवस्था

  • पशुचारण: यह ऋग्वैदिक अर्थव्यवस्था का सर्वप्रमुख आधार था। समाज, राजनीति एवं अर्थव्यवस्था से सम्बद्ध शब्दावलियों के आधार पर गाय का महत्व स्पष्ट होता है।
  • आरंभिक आर्य खानाबदोश जीवन ही जीते थे, जो पशुचारण के अनुकूल था। इसके साथ ही लूट के पशुओं के विभिन्न वितरण की विशेष चर्चा हुई है। ऋग्वैदिक काल में व्याघ्र का उल्लेख नहीं मिलता। घोड़ा सबसे महत्वपूर्ण पशु था एवं गाय सबसे पवित्र।
  • कृषि: कृषि की जानकारी आर्यो को थी। इन्हें विभिन्न ऋतुओं, फसल, कृषि, उपकरण, उर्वरक एवं सिंचाई की जानकारी थी।
  • ऋग्वैदिक लोगों को पांच ऋतुओं की जानकारी थी और कहा जाता है कि अश्विन् ने मनु को हल चलाना सिखाया। यद्यपि दास प्रथा पाते हें लेकिन इनका कृषि में नहीं बल्कि गृह कार्यों में उपयोग रहा होगा।
  • शिल्प: धातु (सोना, ताम्र, कांस्य), लकड़ी, चर्म, वस्त्र आदि से सम्बद्ध शिल्प को विकसित होते पाते हैं। अयस् शब्द का उल्लेख है जो लोहा का नहीं बल्कि ताम्र का वाचक रहा होगा।
  • वाणिज्य एवं व्यापार: कुछ इतिहासकार अच्छे पैमाने पर व्यापार होने का निष्कर्ष निकालते हैं जो जल (यहां तक कि समुद्र मार्ग से) एवं थल दोनों मार्ग से होता था। सम्भवतः पणि जो कि अनार्य थे व्यापार कार्य से सम्बद्ध रहे होंगे। विविध शिल्पों से सम्बद्ध वस्तुओं का व्यापार होता होगा।
  • विनिमय के साधन के रूप में निष्क एवं शतमान प्रयुक्त हुए हैं, किंतु मौद्रिक अर्थव्यवस्था नहीं रही होगी और वस्तु-विनिमय प्रणाली ही प्रचलित रही होगी जिसमें निष्क (स्वर्ण धातु) एवं गाय या घोड़ा अथवा दोनों का प्रयोग होता होगा। वित्तीय एवं महाजनी व्यवस्था प्रचलित रही होगी। वैकनाट शब्द उल्लेख है जो ब्याज पर ऋण देने वालों (सूदखोरों) के लिए प्रयुक्त हुआ है।

राजनैतिक स्थिति

  • राजतंत्र ही प्रमुख विशेषता रही होगी, यद्यपि गणतंत्र का भी कुछ उल्लेख पाते हैं। राजतंत्र वंशानुगत था किंतु निरंकुश नहीं विदथ सभा, समिति एवं गण जैसी संस्थाओं का उल्लेख कई बार हुआ है जो राजा की शक्तियों पर नियंत्रण रखते होंगे। कहा गया है कि समिति (आम लोगों की सभा) राजा का चयन करती थी। सम्भवतः यह चयन व्यावहारिक न होकर सैद्धांतिक महत्व का होगा जो एक औपचारिकता रही होगी। ऋग्वेद में दैवीय राजतंत्र का उल्लेख हुआ है। सभा राजकीय विषय पर चर्चा करने के अलावा न्यायाधिकरण का भी कार्य करती थी। सभा में स्त्रियां भाग नहीं लेती थी।
  • राजा युद्ध का नेतृत्व करता था, सम्पत्ति का वितरण करता था एवं कबीले के जानोमाल की हिफाजत करता था। इसके बदले में राजा को बलि मिलता था जो इस काल में एक स्वैच्छिक भेंट था। अभी तक अधिशेष के अभाव में नियमित कर व्यवस्था का विकास नहीं हो पाया था जिसके अभाव में राजा नियमित सेना एवं व्यावसायिक नौकरशाही का विकास नहीं कर पाया था।
  • राजा के सहयोग के लिए प्रशासन का एक तंत्र था। प्रमुख अधिकारी तंत्र निम्नलिखित है-

 

पुरोहित

सलाहाकार

विशपति

राजा

स्पश

गुप्तचर

पुरप

दुर्ग अधिकारी

सेनानी

कुलपति (गृहप्रधान)

बाज्रपति

चारागाह का प्रधान

पालागल

(विदूषक)

ग्रामिणी

युद्ध में ग्राम का नेतृत्व करने वाला

 

  • न्याय व्यवस्था: कोई स्पष्ट न्यायिक ढांचे का दर्शन नहीं होता। गोहत्या के लिए मृत्युदंड के उल्लेख से स्पष्ट है कि कठोर दंड की व्यवस्था थी। दंड का एक रूप विशेष रूप से प्रचलित था, वह हत्या के लिए 100 गायों का जुर्माना। यानि कि अर्थदंड प्रचालित था। ऋण न चुका पाने की दशा में व्यक्ति को ऋणदाता का दास बनाया जा सकता था।

उत्तर वैदिक काल (1000-600 ई.पू.)

  • पुरातात्विक स्रोत के रूप में चित्रित धूसर मृद् भांड (PGW), NBPW व लोहे के उपकरण महत्वपूर्ण हैं। उत्तरी दोआब में PGW के सैकड़ों स्थल मिले हैं। प्रमुख स्थल जिनकी खुदाई हुई- अतरंजीखेड़ा, जखेड़ा, हस्तिनापुर एवं नोह। अतरंजीखेड़ा की खुदाई से लौह उपकरण मिले हैं। यहीं से पहली बार कृषि से संबंधित लौह उपकरण प्राप्त हुए हैं।
  • साहित्यिक स्रोत के रूप में यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, ब्राह्मण, अरण्यक और उपनिषद् ग्रंथ का प्रयोग किया जाता है।

राजनीतिक संगठन

  • इस काल में राज्य निर्माण की प्रक्रिया मुखर हुयी तथा यह महाजनपद की स्थिति तक पहुंच गई। राजा की स्थिति भी मजबूत हुयी तथा उसका पद लगभग वंशानुगत हो गया। इस काल में राज्य निर्माण के आवश्यक तत्व (नौकरशाही, गुप्तचर, सेना, न्याय आदि) का प्रमाण मिलता है। बड़े अधिकारीतंत्र को वेतन देने के लिए धन की आवश्यकता थी। इसलिए इस काल में बलि ने अनिवार्य कर का रूप धारण कर लिया। शक्ति बढ़ने के बावजूद भी राजा असीमित शक्ति का स्वामी नहीं था। उस पर सभा-समिति एवं विभिन्न रत्नियों का प्रभाव रहता था।

राजा के सहायक

सेनानी,  पुरोहित, युवराज, महिषि (रानी), सूत (सारथी), ग्रामिणी, क्षेत्रिय या प्रतिहार (द्वारपाल),  संग्राहित्रि (कोषाध्यक्ष), भागदुध (कर संग्राहक), अक्षवाप (पासा के खेल में राजा का सहयोगी), पालागल (विदूषक)

 

  • इस काल में सभा अधिक महत्वपूर्ण हो गई, समिति का महत्व कम हो गया। गण तथा विदथ लगभग समाप्त हो गया। राजत्व का सिद्धांत ऐतरेय ब्राह्मण में विकसित हुआ। राजा भारी-भरकम उपाधि (‘एकराट’) धारण करने लगा। राजा से जुड़े तीन यज्ञः
  • इस काल में ब्राह्मण तथा राजन्य अधिकांशतः राजकीय करों से मुक्त थे। इस काल में बलि अनिवार्य हो गया। संभवतः शुल्क और भाग भी लिया जाने लगा। गोपथ, ब्राह्मण में विभिन्न क्षेत्र के राजाओं द्वारा कराए जाने वाले यज्ञों का वर्णन है। राजा में दैवीय गुणों का अध्यारोपण किया जाने लगा।

सामाजिक जीवन

  • इस काल में सामुदायिकता टूट रही थी। जन के स्थान पर कुल की प्रधानता होने लगी। गहपति उभरकर आ रहे हैं जो परिवार का प्रधान जान पड़ता है। चातुर्वर्ण व्यवस्था स्थापित होने लगी तथा इस काल में यह जन्म आधारित हो गयी। इस काल में कृषि अधिशेष बढ़ा जिससे विश और राजन्य के बीच तनाव उभरा। इसी तनाव के बीच से हमें क्षत्रिय एवं वैश्य के विकास का प्रमाण मिलता है। ढांचा का सामान्य स्तर ऐसा था कि ब्राह्मण एवं क्षत्रिय का हित लगभग समान, वैश्य कर दाता थे तथा शूद्र की स्थिति कमजोर थी और वे सिर्फ सेवक हो सकते थे। इस प्रकार उत्पादन अधिशेष से सामाजिक जटिलता में वृद्धि हुई।
  • गोत्र की अवधारणा पहली बार इसी काल में आयी। एक कुल के अर्थ में गोत्र शब्द सर्वप्रथम अथर्ववेद में प्रयुक्त हुआ है। शाब्दिक अर्थ-गोष्ठ यानि वह स्थान जहां पूरे गोत्र का गोधन रखा जाता था। कालांतर में एक ही मूल पुरूष से उत्पन्न व्यक्ति एक गोत्र के कहे जाने लगे। प्रारंभ में गोत्र की अवधारणा ब्राह्यणों के लिए थी बाद में ब्राह्यणों द्वारा क्षत्रियों और वैश्यों को भी गोत्र दिये जाने लगे।
  • इस काल में बहिर्गोत्रीय विवाह की अवधारणा मजबूत हुई, इससे एक तरफ कुल का बृहदाकार ढांचा टूटा तथा दूसरी तरफ वधू दूर से आने के कारण इनका संपर्क दूर के क्षेत्र में बढ़ा। बाद में मूल पुरूष के पूर्वजों तथा प्रवर को भी ध्यान में रखा जाने लगा, जिससे वैवाहिक चयन सीमित हो गया।
  • इस काल में स्त्रियों की आर्थिक गतिविधियों में भागीदारी घटी, परिणामतः उनकी स्थिति में गिरावट आयी। सभा एवं समिति में उनके प्रवेश पर रोक लगा दी गयी। इन सबके बावजूद नारी की स्थिति सूत्रकाल की तुलना में अच्छी थी। पुरूषों विशेषकर क्षेत्रियों में बहुविवाह का प्रचलन था। इस काल में बाल विवाह के प्रमाण मिलने लगे तथा विधवा विवाह हतोत्साहित हुआ। सती प्रथा के सांकेतिक साक्ष्य मिलने लगे। नियोग के प्रमाण मिलते हैं। अंतर्जातीय विवाह का भी कुछ प्रचलन था। इस काल में विवाह ऐसा पवित्र संस्कार था जिसमें विच्छेद के लिए स्थान नहीं था।

आर्थिक जीवन

  • उत्तर वैदिक काल में वज्रधारी इन्द्र ‘इन्द्र सुनासिर’ (हलधर) बन जाते हैं। यह पशुचारी व्यवस्था से कृषकीय व्यवस्था में संक्रमण का एक सांस्कृतिक प्रमाण प्रतीत होता है। इस काल के अंत तक कृषि में आंशिक स्तर पर ही सही, लोहे का प्रयोग शुरू हो गया। पुरोहित कृषि के लिए अनुष्ठान करते हैं जिससे साबित होता है कि कृषि को एक संस्कृति के रूप में विकसित करने का प्रयास हो रहा है। इस आधार पर देखते हैं कि पशुपालन अब द्वितीयक महत्व का कार्य रह जाता है। जीवन पद्धति स्थायी हो जाती है। अब दान-दक्षिण में भी भूमि की मांग की जाने लगी। कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि भमि के व्यक्तिगत स्वामित्व की अवधारणा इस काल में विकसित हुई।
  • इस काल में कर्पास (कपास) का उल्लेख नहीं है, किंतु उर्णा (ऊन) शब्द का कई बार उल्लेख है। इस काल में धातु के बर्तन अधिक संख्या में बनने लगे थे। मकान अधिकतर लकड़ी के बनाये जाते थे। इस काल में उल्लिखित श्रेष्ठी शब्द एवं वाजसनेयी संहिता में उल्लिखित गण एवं गणपति शब्द का प्रयोग संभवतः व्यावसायिक संगठन के लिए हुआ है। मुख्य रूप से वस्तु विनिमय प्रणाली ही प्रचलित थी। सिक्के के रूप में निष्क, शतमान, पाद, कृष्णल का उपयोग होता था। वैदिक साहित्य में मना (सोने का सिक्का) एवं रचि (चांदी का सिक्का) के प्रयोग का भी जिक्र है। बाट की मूलभूत इकाई वृष्णन, रत्तिका एवं गुंजा होती थी। रत्तिका को तुलाबीज की उपमा दी गयी है।

धार्मिक व्यवस्था

  • इस काल में ऋचाओं में जादुई शक्ति की संकल्पना उभरी। दैवीय शक्ति के आह्यन के लिए ऋचाओं के उच्चारण की विशेष पद्धति, सुर-लय का प्रयोग होने लगा। व्यक्तिगत पूजा की शुरूआत होती है यानि कलीबाई संरचना टूट रही है। अभी भी बहुदेववाद ज्यादा प्रचलित है जो पुरोहित वर्ग के कारण है। पुरोहित उत्पादन की व्यवस्था को अनुकूलित करने हेतु कर्मकाण्डीय व्यवस्था पर बल देते हैं। कालांतर में इन्हीं पुरोहितों के बीच व्यक्तिगत और वर्गीय हित की संकल्पना उभर कर सामने आती है। पुरोहित अपने प्रभुत्व को बनाये रखने के लिए संस्कृति के कर्मकाण्डीय पक्ष पर ज्यादा बल देते हैं और इस तरह इनकी प्रक्रिया रूढ़ हो जाती है जो बदलते हुए परिवेश के मुताबिक अपने आप को ढाल नहीं पाती।
  • कर्मकाण्ड की प्रधानता से यज्ञों में बड़ी संख्या में पशुओं की आवश्यकता हुई। इनके बलि से आर्थिक गतिविधि बाधित हुयी। अतः वैदिक यज्ञ पद्धति के विरूद्ध इस काल के अंत तक प्रतिक्रिया शुरू हुयी। अरण्यक ने यज्ञ के बदले तप बल दिया। उपनिषद् में मोक्ष की परिकल्पना रखी गयी और ज्ञान पर बल दिया गया।
  • प्रेतात्माओं, जादू-टोने, इन्द्रजाल, वशीकरण में लोगों का विश्वास बढ़ा। आर्य एव अनार्य विचारधाराओं के सम्मिश्रण के फलस्वरूप धर्म में अनेक तत्व प्रविष्ट कर गये जैसे-अप्सरा, गंधर्व, नाग आदि की भी दैव के रूप में कल्पना की जाने लगी।
  • उत्तर वैदिक काल में केवल तीन आश्रम प्रचलित थे-बृह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ। आश्रम व्यवस्था में प्रवृत्ति एवं निवृत्ति मार्ग के बीच एक प्रकार का संतुलन था। चार प्रकार के ऋण-देवऋण, ऋषिऋण, पितृऋण एवं मानवऋण का उल्लेख मिलता है। यजुर्वेद में बृह्मचर्य द्वारा ऋषिऋण से, यज्ञ द्वारा देवऋण से एवं संतान द्वारा पितृऋण से उऋण होने की बात है। चार प्रकार के पुरूषार्थो की परिकल्पना की गयी- धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष।
  • उपनयन संस्कार के बाद बालक बृह्मचर्य आश्रम को ग्रहण करता था। समावर्तन संस्कार (शिक्षा की समाप्ति) के बाद गृहस्थ आश्रम शुरू।
  • वानप्रस्थ आश्रम में आर्य बस्ती में दूर रहकर मनन एवं चिंतन करता था। सन्यास आश्रम में व्यक्ति जीवन की सक्रिय गतिविधि से दूर रहता था।
  • स्मृतिकारों ने 16 संस्कारों की बात कही जो जीवन के सभी अवस्था से संबंधित था।
  • जन्म से पहले के संस्कार- गर्भाधान्, पुंसवन्, (पुत्र प्राप्ति हेतु), सीमांतोन्नयन् (गर्भ की रक्षा के लिए)।
  • जन्म के बाद संस्कार- जातकर्म (जन्म के तत्काल बाद), नामकरण, निष्क्रमण (पहली बार बच्चा को घर से बाहर निकाला जाता था), अन्नप्रासन् (छठे महीने में), कर्णच्छेदन्, चूड़ाकर्म, (मुण्डन), विद्यारंभ, उपनयन्, वेदारंभ (पहनी बार गुरू के यहां जाता था), केशांत (पहली बार दाढ़ी-मूंछ बनवायी जाती थी), समावर्तन् (अध्ययन की समाप्ति के बाद विवाह)।
  • मृत्यु के बाद के संस्कार- अंत्येष्टि।
  • श्राद्ध-श्राद्ध प्रथा के प्रारम्भिक साक्ष्य सूत्र काल से ही प्राप्त होने लगते हैं।
  • यज्ञ के अतिरिक्त दान भी दिया जाता था। प्रमुख दान- सामान्य दान, धर्म दान, विशिष्ट दान एवं महादान (स्वर्ण, घोड़ा, भूमि)।
  • कभी-कभी किसी विशेष क्षेत्र में शिक्षा प्रसार के लिए विशिष्ट परिषद् स्थापित की जाती थीः जैसे- पांचाल परिषद्। शिक्षा प्रसार के लिए सभाओं का भी आयोजन होता था। विदेह ने विद्वानों की एक सभा बुलाई थी।
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