इतिहास के प्रमुख स्रोत

इतिहास के प्रमुख स्रोत-

 अभिलेख

                अभिलेख ऐसे लेख अंकित स्रोत हैं, जो कागज पर नहीं हैं, इन्हे साहित्य का अंग नहीं माना जाता।  ज्यादातर अभिलेखों की शैली पद्यात्मक है, कुछेक चंपू शैली में तथा कुछेक गद्य में भी हैं।

प्रमुख अभिलेख:

  • बोगजकोई/मितन्नी अभिलेख: यह 1400 ई.पू. का है।
  • पिपरहवा का लेख: संभवतः भारत का पहला अभिलेख है जो पांचवी शताब्दी ई.पू. का है। लिपि-ब्राह्यी, भाषा-प्राकृत। बुद्ध के महापरिनिर्वाण का उल्लेख मिलता है।
  • सोहगौरा अभिलेख: चंद्रगुप्त मौर्यकालीन, लिपि-ब्राह्यी, भाषा-प्राकृत, कल्याण (अकाल से निपटने का राजकीय प्रयास)। यह अभिलेख गोरखपुर (उत्तर प्रदेश) से प्राप्त।
  • महास्थान अभिलेख: दीनाजपुर (बांग्लादेश), चन्द्रगुप्त मौर्यकालीन। लिपि-ब्राह्यी, भाषा-प्राकृत, विषय-कल्याण (अकाल से निपटने का राजकीय प्रयास)।
  • अशोक के अभिलेखः
  • वृहद शिलालेख – 14 (आठ जगहों से प्राप्त, दो पृथक शिलालेख- धौली और जौगढ़ से प्राप्त)
  • स्तंभ लेख – 7 (छह जगहों से प्राप्त)
  • गुहालेख – 4 (बराबर पहाड़ी से तीन, एवं पानगुनेरिया से एक) (अशोक के अभिलेखों का विस्तृत विवरण मौर्य साम्राज्य से संबंधित टॉपिक में दिया गया है)
  • पहलव शासक गोंडोफर्निज का गद्देबहर तख्ते-बही अभिलेख – पेशावर स्थित इस अभिलेख पर 103 विक्रम संवत् की तिथि दी गई है।
  • नहपान का नासिक अभिलेख: इससे नहपान द्वारा मालवा जीतने की तथा समकालीन सातवाहन शासक के पूर्वी दक्कन (आंध्रप्रदेश) की ओर बसे होने की जानकारी मिलती है।
  • रूद्रदामन का जूनागढ़ अभिलेखः संस्कृत भाषा का प्रथम अभिलेख (150 ई.) लिपि-ब्राह्यी। सुदर्शन झील का पुनरोद्धार सुविशाख द्वारा स्वंय के कोष से कराने का तथा यज्ञश्री सातकर्णी के पुत्र पुलुमावी से अपनी पुत्री का विवाह करने का उल्लेख चन्द्रगुप्त मौर्य और अशोक दोनो का जिक्र जूनागढ़ अभिलेख से ही मिलता है।
  • कनिष्क प्रथम का सुईविहार लेखः बहावलपुर (पाकिस्तान), भाषा संस्कृत से प्रभावित प्राकृत, लिपि-खरोष्ठी। इससे कनिष्क के बौद्ध मतावलंबी होने की जानकारी मिलती है।
  • बेसनगर का गरूड़ध्वज अभिलेखः यूनानी राजा एंटियालकिड्स के राजदूत तक्षशिला निवासी हेलियोडोरस के विदिशा के शुंग शासक भागभद्र के दरबार में आने और भागवत (वैष्णव) हो जाने का उल्लेख है। हेलियोडोरस ने वसुदेव को एक गरूड़ध्वज अर्पित किया, जिस पर आत्मनिग्रह, त्याग और सतर्कता जैसे तीन अमर सत्य खुदे हैं। इस अभिलेख पर महाभारत के शांति पर्व तथा कृष्ण और विष्णु के एकीकरण का उल्लेख है।
  • कलिंग नरेश खारवेल का हाथीगुम्फा अभिलेखः भुवनेश्वर के निकट, उदयगिरी पहाड़ी पर स्थित प्रशास्ति है 15 वर्ष की आयु में खारवेल के युवराज बनने और 24 वर्ष की आयु में शासक बनने का उल्लेख एवं खारवेल की उपलब्धियों का वर्षवार विवरण किया गया है।
  • नागनिका का नानाघाट लेख: प्रथम सदी ई. पू. के उत्तरार्ध का, भाषा प्राकृत, लिपि- ब्राह्यी। गौतमी बलश्री के समय यह लेख खुदवाया गया। इसी से भूमि दान का अभिलेखीय साक्ष्य प्राप्त होता है।
  • हरिषेण की प्रयाग प्रशस्तिः भाषा-संस्कृत, लिपि-ब्राह्यी, शैली-चम्पू।
  • इस अभिलेख पर अशोक, समुद्रगुप्त, बीरबल और जहांगीर के लेख हैं
  • इसमें समुद्रगुप्त के विजय अभियान का विस्तृत वर्णन है, किंतु अश्वमेघ यज्ञ की सूचना नहीं है।
  • चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य का मेहरौली का लौहस्तंभः ब्राह्यी, भाषा-संस्कृत। विष्णुध्वज के रूप में निर्मित, साम्राज्य विस्तार और धार्मिक उपलब्धियों का वर्णन (बंगाल, पंजाब और राजाओं पर विजय) किया गया है।
  • कुमारगुप्त का विलसंड अभिलेखः एटा (उत्तर प्रदेश), कुमारगुप्त के राज्यारोहण का पता चलता है। कुमारगुप्त तक गुप्तों की वंशावली मिलती है।
  • कुमारगुप्त का मंदसौर अभिलेख: वत्सभट्टि द्वारा उत्कीर्ण यह अभिलेख दशपुर (प्राचीन मालवा) के राज्यपाल बंधुदर्मा द्वारा सूर्यमंदिर निर्माण का उल्लेख (कुमारगुप्त द्वितीय के समय रेशम बुनकरों की एक श्रेणी ने इसका जीर्णोद्धार कराया) करता है।
  • स्कंदगुप्त का जूनागढ़ अभिलेखः स्कंदगुप्त की राज्यारोहण तिथि गुप्त संवत् 136 (455 ई.), हूणों के पराजय, प्रांतीय शासक के स्वरूप, सुराष्ट्र के राज्यपाल पर्णदत्त द्वारा सुदर्शन झील के पुननिर्माण (गिरनार के पुरपति चक्रपालित द्वारा) का उल्लेख मिलता है।
  • स्कंदगुप्त का भीतरी स्तंभलेखः सैदपुर (गाजीपुर-उत्तर प्रदेश), पुष्यमित्रें और हूणों के साथ स्कंदगुप्त के युद्ध, राजनीतिक उपलब्धियों एवं ग्राम दान का उल्लेख मिलता है।
  • भानुगुप्त बालादित्य का एरण अभिलेखः सांची (मध्यप्रदेश), 510 ई. में भानुगुप्त के मित्र गोपराज की युद्ध में मृत्यु के बाद उसकी पत्नी के सती होने का वर्णन है (सती प्रथा का प्रथम अभिलेखीय साक्ष्य)।
  • पुलकेशिन द्वितीय का एहोल प्रशस्तिः यह रविकीर्ति द्वारा संस्कृत भाषा तथा दक्षिण ब्राह्यी लिपि में लिखित है हर्ष को पराजित करने (634ई.), पट्टडेकल क्षेत्र में बनाए गए मंदिरों तथा गुफा चित्रें का उल्लेख मिलता है इसमें रविकीर्ति ने अपने को कालीदास तथा भारवि के समकक्ष बताया है।
  • मालवा के यशोधर्मन की मंदसौर प्रशस्तिः इस प्रशस्ति की रचनाप वासुल द्वारा की गई। मंदसौर का प्राचीन नाम दसपुर मिलता है। इसमें उसे जनेन्द्र तथा औलिकरवंशी कहा गया है।
  • उत्तर मेरूर अभिलेखः (परांतक प्रथम का) चोलकालीन स्थानीय स्वशासन का वर्णन मिलता है।

 

मुद्रा

  • सैन्धव सभ्यता में सिक्कों का अस्तित्व नहीं मिलता है, केवल मुहरें प्राप्त होती है।
  • ब्राह्मण ग्रंथों और वैदिक साहित्य में कृष्णल, सुवर्ण, शतमान एवं निष्क (पंचमार्क सिक्कों के अनुरूप नाम) शब्द उल्लिखित हैं, किंतु इस काल में प्रमुख रूप से इसका प्रयोग आभूषण के अर्थ में होता होगा (रूद्र विश्वरूप के गले में निष्क पहने होने का उल्लेख)। स्पष्ट है कि विनिमय का माध्यम वस्तु हुआ करता था।
  • पाणिनी ने अपनी अष्टाध्यायी में निष्क, शतमान, पाद, कार्षापण का उल्लेख किया है।
  • पहली बार मुद्रा का इस्तेमाल स्पष्टतः छठवीं-सातवीं सदी ई.पू. में हुआ। मुद्राओं की शुरूआत का कारण व्यापार की आवश्यकता रही होगी।

आहत सिक्के:

  • ये भारत के प्राचीनतम् सिक्के माने गये हैं, इनका नाम ‘पण ज्ञात होता है, कार्षापण कहे जाते थे। इन सिक्कों को सामान्यतः सोना, चांदी तथा तांबा से बनाया जाता था। आहत सिक्को के निर्माण की एक अन्य विधि में धातुइ के गर्म पिंडों को ठप्पे से दबाकर सिक्का तैयार किया जाता था। इस प्रकार के सिक्के मूलतः मध्य भारत से प्राप्त हुए हैं।
  • पुरातात्विक साक्ष्यों की विवेचना से प्राचीन भारत में मुद्रा निर्माण की तीन विधियां ज्ञात होती हैं- 1. आहत अथवा छापा विधि (Punching) 2. ढ़लाई विधि (Casting) 3. ठप्पा प्रहार विधि (Diestriking)
  • श्रेणियां और निगम संभाएं सिक्के तैयार कराती थीं। आहत सिक्कों पर अंकित किसी न किसी चिन्ह से उनका संबंध निश्चित था।
  • ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर स्पष्ट होता है कि मौर्यकाल में सिक्के राजकीय नियंत्रण में निर्मित होते थे। इसी से अर्थशास्त्र में राज्य के टकसाल के भीतर बनने वाली मुद्राओं के लिए लक्षणाध्यक्ष नामक अधिकारी का जहां उल्लेख हैं, वहीं ‘रूपदर्शक’ नामक सिक्कों के जांचकर्ता का नाम भी है।
  • सिकंदर का बेबीलोन से ड्रेकाद्रम नामक चांदी का सिक्का (झेलम/हाइडेस्पीज युद्ध की स्मृति में चलाया गया) प्राप्त होता है, सिक्के के एक तरफ जीजस के रूप में सिकंदर का अंकन है दूसरी तरफ युद्धभूमि का अंकन है, जिसमें एक अश्वारोही गज सवार पर भाले से वार करता है।
  • मौर्योत्तर काल में: मौर्योत्तर काल में विदेशी प्रभाव के कारण मुद्रा का रूपाकार निश्चित हो गया। मुद्रा के ऊपर शासक की पहचान दी जाने लगी। बड़ी संख्या में एक ही स्थान से सिक्कों की प्राप्ति से अनुमान लगाया जाता है कि सिक्कों की प्राप्ति का स्थान उस शासक के राज्य का भाग था। सिक्कों के पृष्ठभाग पर जिस देवता की आकृति बनी हो, उससे शासक के धार्मिक विचार जाने जाते हैं। सिक्कों में जब सोने की अपेक्षा खोट की मात्र अधिक हो तो राज्य की आर्थिक दशा के पतनोन्मुख होने की जानकारी मिलती है।
  • इंडो-ग्रीक मुद्रायें: इस काल में पहली बार स्वर्ण सिक्के (पहला सिक्का मिनाण्डर का) बनने लगे। यें आकार में गोल थे, इन्हें स्टेटर/डिनेरियस कहा जाता था। रजत सिक्के अधिक मात्र में मिले हैं, इन्हें ‘द्रम’ (Drachm) कहा जाता था।
  • हिंद-यवन सिक्कों के अग्रभाग पर राजा का सिर अथवा वक्ष की आकृति तथा पृष्ठभाग पर लेख (बख्त्री क्षेत्र में तैयार सिक्कों के केवल पृष्ठभाग पर यूनानी लिपि में लेख, जबकि भारतीय क्षेत्र में तैयार सिक्कों के सामने यूनानी/रोमन लिपि में तथा पृष्ठभाग में खरोष्ठी लिपि-प्राकृत भाषा में अंकित हैं (द्विभाषीय सिक्के)।
  • कुषाण मुद्रायें: कुजुल कडफिसेस के सिक्कों के ऊपर हर्मियस की तस्वीर अंकित है। विम कडफिसेस के आद्य सिक्के तांबे के बने हैं (भारतीय इतिहास में सर्वाधिक ताम्र सिक्के कुषाणों ने जारी किए)। विम कडफिसेस की मूल इकाई दीनार है, जो संकेतित करता है कि यह रोमन प्रभाव लेकर आया होगा। यह अंतिम था, जिसने द्विभाषीय सिक्के चलाये ग्रीक एवं खरोष्ठी (प्राकृत)। विम कडफिसेस के सिक्कों पर अग्रभाग पर वज्र एवं गदाधारी राजा, जिसके कंधों से अग्नि लपटें निकल रही हैं, इसके पृष्ठभाग पर त्रिशूलधारी शिव नंदी के साथ अंकित हैं।
  • कनिष्क: कनिष्क की मुद्राओं पर भारतीय, यूनानी, ईरानी तथा पर्सियन देवताओं के नाम मिलते हैं। कनिष्क के सिक्कों पर अग्रभाग पर हवनकुण्ड में आहुति देता राजा, पृष्ठभाग पर देवता का अंकन, अग्रभाग पर सिरस्त्रण और प्रभामंडलयुक्त राजा, पृष्ठभाग पर देवता का अंकन है।
  • हुविष्क की एक स्वर्ण मुद्रा पर हरिहर का आदि रूप मिलता है (देवता के एक हाथ में चक्र तथा दूसरे में उर्ध्वलिंग), तथा इसके सिक्कों पर विष्णु, उमा (कमल लिए), महासेन आदि देवताओं का भी अंकन मिलता है।
  • वासुदेव के सिक्कों पर हवनकुण्ड में आहुति देता राजा, जिसके बाएं हाथ में त्रिशूल तथा अधिकांश सिक्कों पर शिव का अंकन।

नोटः कुषाणों के स्वर्ण सिक्के शुद्धता की दृष्टि से उत्कृष्ट हैं। इनका वजन 123.24 ग्रेन है तथा इनमें स्वर्ण की मात्र 92 प्रतिशत है।

  • नहपान: इसके सिक्के अजमेर से नासिक तक के क्षेत्रें में प्राप्त हुए हैं। सिक्कों पर ग्रीक, ब्राह्यी, खरोष्ठी लिपि का प्रयोग हुआ है। इसके सिक्कों का ढेर जोगलथम्बी से प्राप्त हुआ है, जिनमें से अधिकांश सातवाहन नरेश गौतमीपुत्र शातकर्णी द्वारा पुनरंकित किए गए हैं।
  • सातवाहनों के सिक्के आंध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश, दक्षिण-पश्चिम तथा दक्षिण के विस्तृत क्षेत्रें से प्राप्त हुए हैं। इनके सिक्के सीसा, तांबा, पोटीन, चांदी से निर्मित थे। सातवाहनों ने सर्वाधिक सीसे का सिक्का चलाया (सीसा, ये लोग रोम से प्राप्त करते थे)। जोगलथम्बी से प्राप्त नहपान की मुद्राओं पर गौतमीपुत्र शातकर्णी द्वारा पुनरांकन का साक्ष्य मिलता है। यज्ञश्री शातकर्णी सिक्के के अग्रभाग पर दो मस्तूल वाले जहाज, मछली, शंख तथा पृष्ठभाग पर उज्जैनी चिन्ह का अंकन है।
  • गुप्तकालीन सिक्के: गुप्तों ने सोने, चांदी तांबे व सीसे के सिक्के चलाये। गुप्तकालीन स्वर्ण का सबसे बड़ा ढेर बयाना (राजस्थान) से प्राप्त हुआ है। अन्य धातु के सिक्कों में कमी तथा स्वर्ण सिक्कों में कमी तथा स्वर्ण की अधिकता से यह स्पष्ट होता है कि स्थानीय व्यापार अवनत तथा विदेशी व्यापार उन्नत हुआ होगा। फाह्यान अपनी रचना फो-क्यो-की’ में वर्णन करता है कि सामान्य लेन-देन कौड़ियों के माध्यम से होता था।
  • चन्द्रगुप्त प्रथम ने लिच्छवि प्रकार, राजा-रानी प्रकार या विवाह प्रकार के सिक्के चलाए। इसके अग्रभाग पर चंद्रगुप्त-कुमारदेवी की आकृतियां उनके नामों के साथ और पृष्ठभाग पर सिंहवाहिनी देवी के साथ मुद्रा लेख लिच्छवयः’ उल्लिखित है (ब्राह्यी लिपि में)।
  • समुद्रगुप्त के सिक्के: इसकी कुल छह प्रकार की स्वर्ण मुद्रायें प्राप्त होती हैं-1) गरूड़ प्रकार, 2) धनुर्धारी प्रकार, 3) परशु प्रकार, 4) अश्वमेघ प्रकार, 5) व्याघ्रहनन प्रकार, 6) वीणावादन प्रकार अग्रभाग पर वीणा बजाते राजा के साथ मुद्रालेख, पृष्ठभाग पर कार्नोपिया (कमल) लिये लक्ष्मी की आकृति। समुद्रगुप्त के सिक्कों से उसके संगीत प्रेम, अश्वमेघ यज्ञ कराने एवं उसकी विजयों की जानकारी प्राप्त होती है।
  • चन्द्रगुप्त द्वितीय के सिक्के- 1) धनुर्धारी प्रकार, 2) छात्रधारी प्रकार, 3) पर्यंक प्रकार, 4) सिंह निहन्ता प्रकार, 5) अश्वारोही प्रकार, आदि प्रकार के सिक्कों से चंद्रगुप्त की विजयों, उपाधि एवं रूचियों की जानकारी प्राप्त होती है।
  • कुमारगुप्त के सिक्केः कार्तिकेय प्रकार के सिक्के के अग्रभाग पर मयूर को खिलाते राजा की आकृति तथा पृष्ठभाग पर मयूर पर आसीन कार्तिकेय उत्कीर्ण।
  • परवर्ती गुप्तों में स्वर्ण सिक्के कम हुए, जो गुप्तोत्तर काल में विरले ही नजर आते हैं, सिक्कों का अभाव व्यापार की अवनति दर्शाता है। इस काल में अधिकारियों को वेतन, भूमि अनुदान के रूप में दिये जाने लगे (ह्नेनसांग के अनुसार, हर्षर्द्धन अपनी कुल राजस्व भूमि का 1/4 वितरित कर देता है)।
  • कलचुरि शासक गांगेय देव ने एकबार फिर से स्वर्ण सिक्कों की मात्र को बढ़ाया। इसके दो प्रकार के सिक्के मिले हैं (लक्ष्मी का अंकन, वृषभ और अश्वारोही का अंकन)। इन सिक्कों को ‘देहलीवाल’ कहते हैं। यह इल्तुतमिश के काल तक प्रचलन में रहा।

साहित्यिक स्रोत

साहित्यिक स्रोतों को हम मुख्यतः तीन भागों में बांट सकते हैं।

  1. धार्मिक साहित्यः इसके अंतर्गत वैदिक साहित्य, वैदिकोत्तर साहित्य, बौद्ध साहित्य, जैन साहित्य एवं शैव आदि साहित्य शामिल किये जाते हैं।
  2. धर्मेत्तर साहित्यः इसके अंतर्गत लौकिक साहित्य जैसे नाटक, जीवनी, महाकाव्य, टीका, व्याकरण, खगोल, चिकित्सा, स्थापत्य एवं राजनैतिक ग्रंथ जैसे साहित्यों को शामिल किया जाता है।
  3. विदेशियों का विवरणः इसके अंतर्गन यूनानी, चीनी एवं अरब यात्रियों के विवरण शामिल किये जाते हैं।
  4. साहित्यिक स्रोतों की अपेक्षा पुरातात्विक स्रोत अधिक महत्वपूर्ण माने जाते हैं क्योंकि साहित्यिक स्रोत व्यक्तिगत विचारधारा से प्रेरित होने के साथ-साथ इनमें परिवर्तन की भी गुंजाइश रहती है, जबकि पुरातात्विक स्रोतों में बाद में परिवर्तन नहीं किया जा सकता।

वैदिक साहित्य

वैदिक साहित्य में वेद, ब्राह्मण, अरण्यक्, उपनिषद शामिल है। वेद शब्द विद् धातु से बना है जिसका अर्थ है जानना अर्थात् ज्ञान। भारतीय मान्यता में वेद ‘अपौरूषेय’ कहा गया है।

  • ऋग्वेद: ऋग का अर्थ छंदों तथा चरणों से युक्त मंत्र होता है। इसमें 1028 सूक्त हैं। यह दस मंडलों में विभाजित है। इनमें प्रार्थनाएं संकलित हैं। दूसरा से सातवां मंडल सबसे प्राचीन है जबकि पहला और अंतिम मंडल सबसे बाद का है। ऋग्वेद में कुल मंत्रें की संख्या 10600 है। नौंवा मंडल सोममंडल है।
  • ऋग्वेद की कुछ ऋचाओं की रचना महिलाओं ने की है। ये हैं- लोपामुद्रा, घोषा, शची, पौलोमी, कक्षावृत्ति। ऋग्वेद की पांच शाखाएं हैं।
  • यजुर्वेदः यजुष् का अर्थ है यज्ञ। यज्ञों को संपूर्ण कराने के लिए इसमें मंत्रें का संग्रह है जिसका अध्वर्यु पुरोहित द्वारा उच्चारण किया जाता था। यह एक गद्य ग्रंथ है। यजुर्वेद के दो भाग हैं- कृष्ण यजुर्वेद-इसमें मंत्र तथा गद्यात्मक वाक्य हैं तथा शुल्क यजुर्वेद इसमें केवल मंत्र है, इसकी मुख्य शाखाएं हैं- माध्यन्दिन तथा काण्व। इसे वाजसनेयी भी कहा गया क्योंकि वाजसेनी के पुत्र याज्ञवल्क्य इसके द्रष्टा थे।
  • सामवेद: साम का अर्थ है संगीत। इसमें यज्ञों के अवसर पर गाने वाले मंत्रें का संग्रह हैं, जिसे उद्गाता गाता था। इसमें 75 सूक्त को छोड़कर शेष ऋग्वेद से लिए गए हैं। यह भारतीय संगीत शास्त्र पर प्राचीनतम् पुस्तक है।
  • प्रथम तीन वेदों को वेदत्रयी कहा गया है।
  • अथर्ववेदः यह लौकिक फल देने वाली संहिता है। इसमें तंत्र-मंत्र संकलित हैं। इसमें औषधि एवं विज्ञान संबंधी जानकारी भी है। इसे अथर्वांड्गिरस वेद भी कहा जाता है। इसकी कुछ ऋचायें बृह्मविद्या से संबंधित हैं, इसी कारण इसे बृह्मवेद भी कहा जाता है। यह यज्ञ के निरीक्षक बृह्म के उपभोग के लिए थी। इसमें मगध तथा अंग को दूरस्थ प्रदेश कहा गया है। इसमें मगधवासियों को व्रात्य कहा गया है। जो प्राकृत भाषा बोलते थे। इसमें कन्या के उपनयन की चर्चा, साथ ही बृह्मचर्य आश्रम में रहकर वेदाध्ययन करने का स्पष्ट उल्लेख है। प्रमुख विदुषी महिलाएं-गार्गी, मैत्रेयी।
  • अथर्ववेद में सिंचाई के साधन के रूप में वर्णाकूप एवं कुलमा (नहर) का उल्लेख है। इसमें वर्ष में दो फसल उपजाने तथा खाद के रूप में गोबर (शकृत और करिषु) के प्रयोग की बात है। सर्वप्रथम अथर्ववेद में रजत (चांदी) का उल्लेख हुआ है। इसमें लोहे के लिए श्याम या कृष्ण अयस् शब्द प्रयुक्त किए गए। वाजसनेयी संहिता मे श्याम अयस शब्द प्रयुक्त हुआ।
  • ब्राह्मण ग्रंथ: इनकी रचना यज्ञ के विधान तथा उसकी क्रिया को समझाने के लिए की गयी है। इनका प्रधान विषय यज्ञों का प्रतिपादन तथा उनके विधियों की व्याख्या करना है। ये अधिकांशतः गद्य में लिखे गए।
  • शतपथ ब्राह्मण सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। इसमें विदेथ माधव तथा उसके पुरोहित गौत्तम राहुगण द्वारा सदानीरा (गण्डक) तक आर्यीकरण करने का उल्लेख है। शतपथ ब्राह्मण में ही पहली बार पुनर्जन्म के सिद्धान्त का वर्णन इसी में है।
  • ऐतरेय ब्राह्मण की रचना महिदास ऐतरेय द्वारा की गयी। राजस्व के सिद्धान्त के विकास, सैनिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए हुआ है। इसमें उत्तर का राजा विराट, दक्षिण का भोज, पश्चिम का स्वराट, मध्यदेश का राजा तथा पूर्व का सम्राट कहा गया है। वैराज्य ऐसा क्षेत्र होता था जहां शासक नहीं था।
  • अरण्यक् ग्रंथ: यह ब्राह्यणों का अंतिम भाग है। इसका पाठ एकांत एवं वन में भी संभव। यह तप पर बल देता है। इनमें यज्ञों के स्थान पर ज्ञान एवं चिन्तन को प्रधानता दी गयी है। इन्हीं से कालांतर में उपनिषदों का विकास हुआ। अरण्यक ग्रंथ वानप्रस्थ आश्रम के यज्ञों, व्रतों तथा कार्यों का विवरण देते हैं। प्रमुख अरण्यक हैं-ऐतरेय, शंखायन, तैत्तिरीय, वृहदारण्यक, जैमिनी तथा छन्दोग्य।
  • उपनिषद्: शाब्दिक अर्थ शास्त्र या विद्या जो गुरू के निकट बैठकर एकांत में सीखी जाती है। यह वैदिक साहित्य का अंतिम भाग माना जाता है। इसलिए इसे वेदांत भी कहते हैं। यह रहस्यात्मक ज्ञान एवं सिद्धांत का संकलन है। मुक्तिकोपनिषद् में 108 उपनिषदों का उल्लेख है। मल्लोपनिषद् की रचना अकबर के समय में हुयी। कठ, श्वेताश्वर, ईश तथा मुंडक उपनिषद् छंदोबद्ध है। केन् और प्रश्न उपनिषद् का कुछ भाग छंद एवं कुछ भाग गद्य है। उपनिषदों में बृह्म तथा आत्मा के बीच तादात्म्य स्थापित किया गया है। जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य आत्म या बृह्म साक्षात्कार है। इसे प्राप्त करने का माध्यम उपनिषदों में बताया गया है।
  • बृहदारण्यक उपनिषद में याज्ञवल्क्य गार्गी सम्वाद है जिसमें याज्ञवल्क्य गार्गी का वाद-विवाद के क्रम में सिर तोड़ने की धमकी देते हैं। इसी में सर्वप्रथम बृह्म या परमात्मा के ज्ञान का निश्चित वर्णन है। इसी में सर्वप्रथम पुनर्जन्म के सिद्धान्त का वर्णन है।
  • छान्दोग्य उपनिषद इसी में बृह्म ही सबकुछ है कहकर अद्वैतवाद की प्रतिष्ठा की गयी है। इसमें शिक्षा के विषयों की सूची है, ये हैं-वेद, इतिहास, राशि (गणित), व्याकरण, वाकावाक्य (तर्कशास्त्र), विधि, क्षत्रविद्या, भूत विद्या (जीवशास्त्र), पुराण (पंचभेद)
  • मैत्रयणी संहिता में स्त्रियों की तुलना मदिरा और पासा से की गयी है तथा इसी में त्रिमूर्ति तथा चार आश्रमों के सिद्धान्त का वर्णन है।
  • कठोपनिषद् में यम ने नचिकेता किो आत्मज्ञान विषयक उपदेश दिया। सर्वप्रथम जाबालोपनिषद् में चारो आश्रमों की चर्चा हुई।
  • सत्यमेव जयते मुण्डकोपनिषद् से लिया गया है। इसी में यज्ञ की तुलना फूटी हुई नौका से की गयी है।

वैदिकोत्तर साहित्य: उपवेद, वेदांग एवं पुराण वैदिकोत्तर साहित्य के अंतर्गत आते हैं।

  • वेदांग: वेद के अर्थ को सरलता से समझने तथा वैदिक कर्मकांडों को प्रतिपादित करने में सहयोग देने के लिए एक नवीन साहित्य की रचना हुई, जिसे वेदांग कहा जाता है। ये छह हैं-शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरूक्त, छंद, एवं ज्योतिष।
  • शिक्षा: वैदिक मंत्रें के शुद्ध-शुद्ध उच्चारण तथा शुद्ध स्वर क्रिया की विधियों के ज्ञान के निमित्त इसकी रचना हुयी। इसे वेद रूपी पुरूष की नाक कहा गया।
  • कल्प: वैदिक यज्ञों की व्यवस्था तथा गृहस्थाश्रम के लिए उपयोगी कर्मों के प्रतिपादन करने के निमित्त इसकी रचना, हुयी, यानि इसमें धार्मिक अनुष्ठान का विधान है। सूत्र ग्रंथों को ही कहा जाता है। कल्पसूत्र मुख्यतः चार प्रकार के हैं- श्रोतसूत्र, गृह्यसूत्र, धर्मसूत्र एवं शुल्वसूत्र।
  • श्रौतसूत्र में हमें वेदों में वर्णित यज्ञ भागों तथा यज्ञ सम्बन्धी विधि नियमों का क्रमबद्ध विधि नियमों का क्रमबद्ध विवरण मिलता है। गृह्यसूत्र में गृहस्थाश्रम से संबंधित धार्मिक अनुष्ठानों तथा कर्त्तव्यों का वर्णन है। धर्मसूत्र में चारों प्रमुख वर्णों की स्थितियों, व्यवसायों, कर्त्तव्यों, दायित्वों तथा विशेषाधिकारों में स्पष्ट विभेद दिखता है (सामाजिक नियमों तथा आचार-विचारों का विस्तारपूर्वक वर्णन)। शुल्वसूत्र में यज्ञीय वेदियों को नापने आदि का वर्णन है जो आर्यों के ज्यामितीय ज्ञान का परिचालक है।
  • व्याकरण: शब्दों की मीमांसा करने वाले शास्त्र को व्याकरण कहा गया है। इसका संबंध भाषा संबंधी समस्त नियमों से है। व्याकरण की सर्वश्रेष्ठ रचना पाणिनी की अष्टाध्यायी है। बाद में पंतजलि ने महाभाष्य लिखे तथा कात्यायन ने ‘वार्तिका’ की रचना की।
  • निरूक्त: इसमें वैदिक शब्दों की व्युत्पत्ति दी गयी है।
  • छंद: वैदिक मंत्र अधिकांशतः छंदों में बद्ध हैं। इसके सही उच्चारण हेतु छंदों का ज्ञान आवश्यक है। छंदशास्त्र पर पिंगलमुनि का छंद सूत्र सबसे प्रमुख ग्रंथ है। छंदों को वेदों का पैर कहा गया है।
  • ज्योतिष: ग्रहों तथा नक्षत्रें की स्थिति के अध्ययन की आवश्यकता ने ज्योतिष वेदांग को जन्म दिया ताकि शुभ मुहूर्त में यज्ञ कार्य हो। ज्योतिष की सर्वप्राचीन रचना लगधमुनि कृत ज्योतिष वेदांग है। यही भारतीय ज्योतिष शास्त्र का मूलाधार है।
  • उपवेद: उपवेद वेदों से सम्बन्धित माने जाते हैं। ये चार हैं-आयुर्वेद, गन्धर्व वेद, धनुर्वेद और शिल्पवेद।
  • आयुर्वेद ऋग्वेद का उपवेद माना जाता है। इसमें चिकित्सा सम्बन्धी ज्ञान आता है। उपनिषदों में श्वेतकेतु नामक आयुर्वेद के आचार्य का उल्लेख है। परवर्ती युग में जीवक, चरक, सुश्रुत एवं धनवन्तरि आयुर्वेद के प्रमुख आचार्य हुए हैं।
  • गन्धर्ववेद सामवेद का उपवेद है। यह संगीत कला स सम्बन्धित है। धनुर्वेद, का उपवेद है। यह युद्ध कला से सम्बन्धित है। शिल्पवेद अथर्ववेद का उपवेद है। इससे शिल्प सम्बन्धित कला का ज्ञान होता है।
  • पुराण: यह वैदिक साहित्य में शामिल नहीं है। अथर्ववेद में कहा गया है कि चारों वेदों के बाद पुराण का स्थान है। पुराणों के आदि संकलनकर्ता, महर्षि लोमहर्ष तथा उनके पुत्र उग्रश्रवा को माना जाता है। मुख्य पुराणों की संख्या 18 है। ये हैं- मत्स्य, मार्कण्डेय, भविष्य, भागवत, ब्रह्याण्ड, बृह्मवैवर्त, बृह्म, वामन, विष्णु, वायु, अग्नि, नारद, पद्म, लिंग, गरूड़, कुर्म, तथा स्कंद। इन्हें सम्मिलित रूप से महापुराण कहा जाता है। पुराण के पांच भाग होते हैं।
  • सर्ग: सृष्टि की उत्पत्ति, प्रतिसर्ग- प्रलय के बाद सृष्टि की पुनः उत्पत्ति, वंश-देवताओं और ऋषियों की वंशावली, मन्वन्तर-महायुग, वंशानुचरित सर्वाधिक महत्वपूर्ण भाग यही है। पुराणों में प्राचीन राजकुलों का इतिहास है। परीक्षित से लेकर नंदवंश तक का इतिहास हमें मुख्यतया पुराणों से ही ज्ञात होता है।
  • मत्स्य पुराण: विष्णु के मत्स्यावतार से इसका प्रारम्भ होता है। इस पुराण का ऐतिहासिक महत्व है। आन्ध्र राजाओं की प्रामाणिक वंशावली इसमें प्राप्त होती है। भारत में दक्षिण अंचल की स्थापत्य, वास्तु मूर्ति आदि कलाओं का इसमें सुन्दर विवरण है। इसमें विष्णु एवं शिव दोनों के आख्यानों को प्रस्तुत किया गया है।
  • मार्कण्डेय पुराण: इस पुराण में अग्नि, इन्द्र, सूर्य तथा ब्रह्या आदि देवताओं को प्रधान स्थान दिया गया है। इसी पुराण में देवी महात्म्य’ है जिसमें आद्य शक्ति के रूप में देवी दुर्गा की स्तुति का गान है।
  • भागवत पुराण: यह सर्वाधिक प्रसिद्ध तथा लोकप्रिय पुराण है। वैष्णव धर्म में इसे पंचम वेद ही माना जाता है। इस पुराण में बारह स्कन्ध तथा 12,000 श्लोक हैं जिसमें विष्णु किे अवतारों का विस्तृत वर्णन है। दसवें स्कन्ध में श्रीकृष्ण की विभिन्न लीलाएं अंकित हैं। इस पुराण की शैली अत्यन्त प्रौढ़, दार्शनिक एवं परिष्कृत है।
  • विष्णु पुराण: प्राचीनता एवं प्रामाणिकता की दृष्टि से इस पुराण का प्रमुख स्थान है। विष्णु के विविध अवतारों के माध्यम से इसमें विष्णु की उपासना वार्णित है। मौर्य राजाओं की प्रामाणिक वंशावली भी इस पुराण से प्राप्त होती है। इस पुराण का ऐतिहासिक, साहित्यिक तथा दार्शनिक महत्व प्रसिद्ध है। भारतीय पर्वत, नदी (भूगोल दृष्टिकोण से मानव विकास) सांस्कृतिक अवधारणा की व्याख्या।
  • वायु पुराण: इसे शिव पुराण भी कहा जाता है। शिव की स्तुति प्रमुख होने के साथ-साथ इसमें विष्णु सम्बन्धी दो अध्याय भी हैं। इस पुराण का भी ऐतिहासिक महत्व है क्योंकि इसमें गुप्त साम्राज्य का वर्णन है। इसमें संगीत शास्त्र से भी सम्बद्ध एक अध्याय है। भारतीय भूगोल की आरंभिक चर्चा इस पुराण में ही मिलती है।
  • अग्नि पुराण: सबसे बाद का पुराण। भारतीय स्थापत्य का वर्णन।
  • स्मृति ग्रंथ: भारतीय न्याय व्यवस्था के लिए प्रथम प्राप्त ग्रन्थ है। इन्हें धर्मशास्त्र भी कहा जाता है। स्मृतियां हिन्दू धर्म के कानूनी ग्रंथ है। ये पद्य में लिखि गयी हैं। परन्तु विष्णु स्मृति गद्य में लिखि गया है। इनका संकलन विभिन्न कालों में हुआ। प्रमुख स्मृतियां निम्नलिखित हैं-
  • मनुस्मृति: मनु का धर्मशास्त्र हिन्दू धर्म के सम्बन्ध में प्रमुख और सबसे अधिक प्रमाणिक ग्रन्थ है और हिन्दू समाज और सभ्यता के लोकमान्य स्वरूप को प्रकट करता है। मनु का नाम अत्यन्त प्राचीन काल से कई रूप में मिलता है। ये मानव जाति के आदिपुरूष राजसंस्था के प्रथम कर्ता तथा धर्म के प्रथम व्यवस्थापक हैं। इस स्मृति की मूल रचना मौर्योत्तर युग में शुंग काल में हुई। मनु स्मृति का अंग्रेजी संस्करण Code of Zentoo Laws के नाम से जाना जाता है।
  • मनुस्मृति में आर्य संस्कृति के चार क्षेत्रें बृह्मवर्त, ब्रहार्षि, मध्यप्रदेश और आर्यावर्त का उल्लेख मिलता है। शूद्रों के बारे में कहा गया है कि सेवा करना ही उनके जीवन का कर्म था तथा ब्राह्यणों को उनके द्वारा दिये गये अन्न को न ग्रहण करने की बात कही गई। यद्यपि मनु शूद्र अध्यापकों एवं शिष्यों का उल्लेख करते हैं। मनु ने दासों के सात प्रकारों का विवेचना किया है। मनुस्मृति के द्वारा स्त्रियों को वेदाध्ययन का अधिकार नहीं दिया गया। कानून की दृष्टि से स्त्रीधन के अतिरिक्त वे सम्पत्ति की स्वामिनी नहीं बन सकती थी। स्त्री धन पर माता के बाद पुत्रियों और उसके बाद बहुओं का अधिकार था। विधवाओं के लिये इसमें मुंडन की बात कही गई है।
  • याज्ञवल्क्य स्मृति: याज्ञवल्क्य का धर्मशास्त्र मनु की अपेक्षा सुव्यवस्थित एवं संक्षिप्त है। मनु से इसका तुलनात्मक अध्ययन निम्नलिखित प्रकार है- मनु ने ब्राह्मण को शूद्र कन्या के साथ विवाह की अनुमति दी है जब कि याज्ञवल्क्य ने इसका विरोध किया। मनु ने नियोग की निन्दा की परन्तु याज्ञवल्क्य ने नहीं। मनु ने विधवा के उत्तराधिकार के विषय में कुछ नहीं कहा किंतु याज्ञवल्क्य ने विधवा को समस्त उत्तराधिकारियों में प्रथम स्थान दिया है। इसी स्मृति ने स्त्रियों को सर्वप्रथम सम्पत्ति का अधिकार प्रदान किया। मनु द्यूत के विरोधी हैं परन्तु याज्ञवल्क्य ने उसे राज्य के निंयत्रण में रखकर उसे राज्य के आय का साधन बताया है।
  • नारद स्मृति: गुप्त कालीन यह एक प्रमुख स्मृति है। इसमें नियोग प्रथा और स्त्रियों के पुनर्विवाह की अनुमति दी गई है। दासों की मुक्ति का विधान सर्व प्रथम इसी पुस्तक में मिलता है। इसमें भी राजकीय नियंत्रण में द्यूत की अनुमति दी गई है। नारद ने विधवाओं की सम्पत्ति राज्य द्वारा लेकर उनके भरण पोषण को राजा का कर्तव्य बताया है। इसे उन्होंने सनातन धर्म कहा है। नारद स्मृति में स्वर्ण मुद्राओं के लिए ‘दीनार’ शब्द का प्रयोग किया गया है। यह मुद्रा सर्वप्रथम रोम में प्रारम्भ हुई थी और भारत में इसे सर्वप्रथम कुषाण शासकों ने प्रारम्भ किया।
  • विष्णु स्मृति: यह स्मृति गद्य में लिखि गई है तथा गुप्तकालीन मानी जाती है। इस स्मृति में मुद्राओं का विवेचन मनु की अपेक्षा अधिक विकसित रूप में किया गया है
  • देवल स्मृति: यह पूर्व मध्यकालीन स्मृति है। इसे मूलतः विधि विषयक नहीं माना जाता क्योंकि इसमें उन हिन्दुओं को पुनः हिन्दू धर्म में शामिल करने का विधान मिलता था जिन्होंने मुस्लिम धर्म अपना लिया था।
  • प्राचीनतम दो स्मृतियों मनुस्मृति और याज्ञवल्क्य स्मृति पर विद्वानों ने परवर्ती काल में कई भाष्य लिखे। मनुस्मृति के भाष्यकार मेद्यातिथि, कुल्लूक भट्ट, गोविन्द राज और भारूचि हैं तथा याज्ञवल्क्य स्मृति के भाष्यकार विज्ञानेश्वर, विश्वरूप एवं अपरार्क या आदित्य प्रथम (कोंकण के शिलाहार वंशी शासक थे)। जिन्होंने 12वीं सदी के प्रारम्भ में भाष्य लिखा।
  • मिताक्षरा (12वीं सदी): इन ग्रन्थ के लेखक विज्ञानेश्वर हैं, जो कल्याणी के चालुक्य शासक विक्रमादित्य षष्ठ के दरबार में रहते थे। इस ग्रंथ से पता चलता है कि पिता के जीवन काल में भी पुत्रें को सम्पत्ति का भाग मिल सकता है, जो आज बंगाल, असम तथा पूर्वी भारत के राज्यों को छोड़कर समस्त भारत में प्रचलित है।
  • दायभाग (12वीं सदी): इसके लेखक जीमूतवाहन है। इससे पता चलता है कि पिता के जीवन काल में उसके पुत्र को सम्पत्ति का भाग नहीं मिल सकता, केवल मृत्यु के बाद ही मिल सकता है। बंगाल, उसम तथा कुछ पूर्वी राज्यों में यह आज भी प्रचलित है।
  • महाकाव्य काल से तात्पर्य रामायण और महाभारत के समय में है। ये दोनों आर्ष महाकाव्य मााने जाते हैं। यद्यपि इनके समय को लेकर विवाद है, परन्तु लगता है इन का अन्तिम संकलन गुप्तकाल में किया गया।
  • रामायण: इसके रचयिता महर्षि वाल्मीकि हैं। इसका अन्तिम संकलन 400ई. के आसपास हुआ। इसे भारत का आदि महाकाव्य माना जाता है जबकि वाल्मीकि को आदिकवि। प्रारम्भ में इसमें 6000 श्लोक थे परन्तु, बाद में इनकी संख्या बढ़कर 12000 और अन्ततः 24000 हो गई। इसे चतुर्विशति साहग्र्री संहिता भी कहा जाता है।
  • रामायण का तमिल भाषा में पहली बार अनुवाद चोल शासक कुलोत्तुंग तृतीय के समय के कवि कम्बन ने किया। इसे रामायणम् या रामावतारम् नाम से जाना जाता है। रामायण का बंगला भाषा में अनुवाद सर्वप्रथम कृत्तिवास ने बारबर शाह के समय में किया। 20वीं शताब्दी में ई. वी. रामस्वामी नायकर उर्फ पेरियार ने तमिल भाषा में सच्ची रामायण की रचना की।
  • महाभारत: इसका संकलन महर्षि वेदव्यास ने किया, परन्तु यह अन्तिम रूप से 400ई. आसपास पूर्ण हुआ। इससे दसवीं सदी ई.पू. से चौथी सदी ईस्वी के बीच की जानकारी प्राप्त होती है। प्रारम्भ में इसमें केवल 8800 श्लोक थे, तब इसे जयसंहिता कहा गया, जिसका अर्थ है विजय सम्बन्धी संग्रह ग्रंथ।
  • बाद में श्लोकों की संख्या बढ़कर 24000 हो गई, तब इसे भारत कहा गया क्योंकि इसमें प्राचीनतम वैदिक जन भरत के वंशजों की कथा हैं अन्ततः इसमें एक लाख श्लोक हो गए और तद्नुसार यह शतसाहस्री संहिता या महाभारत कहलाने लगा। यह विश्व का सबसे बड़ा, महाकाव्य है। महाभारत में वेदव्यास ने लिखा है “जा इस ग्रंथ में है, वह अन्य जगह भी है, जो इसमें नहीं है, वह कहीं भी नहीं है।”
  • महाभारत में कुल अठारह पर्व हैं। भीष्म पर्व (छठा पर्व) का भाग गीत है, जिसमें कर्म, भक्ति एवं ज्ञान का संगम मिलता है। इसमें कर्म को सर्वाधिक प्रधानता दी गई है। गीता में ही सर्वप्रथम अवतारवाद का उल्लेख मिलता है। महाभारत का तमिल में सर्वप्रथम अनुवाद पेरून्देवनार ने किया, जो भारतम् नाम से जाना जाता है। महाभारत का बंगाल भाषा में अनुवाद अलाउद्दीन नुशरत शाह के समय अनुवाद पेरून्देवनार ने किया, जो भारतम् नाम से जाना जाता है। महाभारत का बंगाल भाषा में अनुवाद अलाउद्दीन नुशरत शाह के समय में हुआ।
  • बुद्धचरित: इस महाकाव्य के रचयिता महाकवि अश्वघोष थे। राजा कनिष्क (78 ईस्वी) के सभाकवि अश्वघोष जन्म से ब्राह्मण होने पर भी प्रकाण्ड बौद्ध दार्शनिक हुए। इस महाकाव्य में तथागत बुद्ध के जन्म से लेकर बुद्धत्व प्राप्ति तक का सुन्दर वर्णन है। सौन्दरानन्द अश्वघोष का एक अन्य महाकाव्य है।
  • रघुवंश: रघुवंश को संस्कृत साहित्य का उत्कृष्ट रत्न स्वीकार किया गया है। इसमें उन्नीस सर्ग हैं जिनमें राजा दिलीप से लेकर अग्निमित्र तक सूर्यवंशी राजाओं की अनेक पीढ़ियों के राजाओं का चित्रण है। आकर्षक चरित्रचित्रण, विशद रूचिर वर्णन, प्रौढ़ प्रतिमा, सुन्दर रस व्यंजना तथा सरल अलंकृत शैली का मणिकांचन संयोग इस महाकाव्य में द्रष्टव्य है।
  • कुमारसंभव: यह महाकाव्य भी कालिदास की उत्कृष्ट काव्यशैली का परिचायक है। हिमालय की पुत्री पार्वती घोर तपस्या करके शिव को पति रूप में प्राप्त करती है। इसके मिलन से कुमार कार्तिकेय का जन्म होता है। कार्तिकेय देव सेनापति बन कर भंयकर तालकासुर का संहार करते हैं और सृष्टि का कल्याण करते हैं- यही इस महाकाव्य की संक्षिप्त कथा है।
  • भट्टिकाव्य अथवा रावणवध: राजा श्रीधरसेन के समय में वलभी नगरी में महाकवि भट्टि ने इस महाकाव्य की रचना की थी। इसका समय छठीं शती का अन्त अथवा सातवीं शती ईस्वी का प्रारम्भ माना जाता है। जैसा महाकाव्य के नाम से ही स्पष्ट है, इस महाकाव्य की कथा राम चरित्र पर आधारित है।
  • किरातार्जुनीय: लगभग सातवीं शती ईस्वी पूर्वार्ध के महाकवि भारवि के द्वारा लिखा गया है। वहां किरातवेश धारी शिव से उनका घोर युद्ध होता है और प्रसन्न शिव अर्जुन को अपना पाशुपतास्त्र देते हैं।
  • शिशुपाल वध: इस महाकाव्य के रचयिता महाकवि माघ थे जिनका सातवीं शती ईस्वी का उत्तरार्द्ध माना जाता है। इसमें युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में श्रीकृष्ण के द्वारा चेदिराज शिशुपाल के वध की घटना मुख्य है।
  • हरविजय: महाकवि रत्नाकर इस महाकाव्य के रचयिता हैं जिनका समय नवीं शती ईस्वी है। इनमें शिव के द्वारा दैत्यराज अन्धकासुर के वध की कथा वर्णित है।
  • नैषधीयचरित: महाकवि श्रीहर्ष ने इस महाकाव्य की रचना की। ये कन्नौज के राजा जयचन्द्र के सभाकवि थे तथा इनका समय बारहवीं शती का उत्तरार्द्ध है। महाभारत का प्रसिद्ध नलोपाख्यान इस महाकाव्य की कथावस्तु का आधार है।
  • खण्डकाव्य: यह संस्कृत वाड़्मय का अत्यन्त सरस अंग है। महाकाव्य की अपेक्षा यह आकार प्रकार में लघुकाय होता है और इसमें जीवन के किसी एक पक्ष अथवा किसी एक घटना का चित्रण ही प्राप्त होता है। खण्डकाव्य को ही गीतिकाव्य कहा जाता है क्योंकि इसके पद्यों को गाया जा सकता है। इस साहित्य विधा के दो रूप हैं- प्रबन्ध एवं मुक्तक। एक ही प्रकार के छन्दों में रची गयी, अल्प एवं परिमित कथावस्तु से सम्पन्न रचना खण्डकाव्य में प्रबन्ध रचना कहलाती है। मुक्तक का अर्थ है केवल एक पद्य, जो ब्राह्य संदर्भ से स्वतंत्र रहकर भी रस की पूर्ण अभिव्यक्ति करा देती है।
  • गीतिकाव्य अथवा खण्डकाव्य के उद्गम की दृष्टि से ऋग्वेद में देवी उषस् के लिए ऋषि के जो ह्नदयोद्गार हैं गीतिकाव्य के सुन्दर उदाहरण हैं। महर्षि पाणिनि के नाम से प्राप्त अनेक सरस श्लोक गीतिकाव्य के अंतर्गत ही आते हैं। किंतु संस्कृत साहित्य में गीतिकाव्य को एक स्वतंत्र विधा के रूप में स्थापित करने का श्रेय महाकवि कालिदास को ही प्राप्त है।
  • ऋतुसंहार: कालिदास के इस खण्ड में छह सर्ग हैं जिसके 144 पद्य एवं पूरे वर्ष की छह ऋतुओं का सुन्दर एवं श्रृंगारिक वर्णन है। इसमें कवि का रचनाकौशल पर्याप्त प्रौढ़ नहीं हैं किन्तु कवि ने इसमें ग्रीष्म ऋतु से प्रारम्भ करके यथाक्रम वर्षा, शरद, हेमन्त, शिशिर तथा बसन्त ऋतुओं का प्रेमी मानव की दृष्टि से सरस एवं र्स्निग्ध वर्णन किया है। इस काव्य की भाषा सरल है और शब्द विन्यास अनुप्रासमय है।
  • मेघदूत: महाकवि कालिदास का यह खण्डकाव्य संस्कृत की एक अनुपम रचना है। इसके दो नाम हैं, पूर्वमेघ तथा उत्तरमेघ तथा दोनों से मिला कर कुल 121 पद्य हैं जो मन्दाक्रान्ता छन्द में है। इसकी कथा अत्यन्त संक्षिप्त है। कुबेर के शाप के कारण अलका नगरी से एक वर्ष के लिए निर्वासित कोई यक्ष रामगिरि पर्वत पर रहता है और वर्षा के प्रारम्भ में मेघ को देखकर अपनी प्रिया की स्मृति से व्याकुल होकर मेघ के द्वारा अपनी प्रिया पत्नी को संदेश भिजवाता है। काव्यकाल एवं रस की अभिव्यंजना की दृष्टि से यह गीतिकाव्य अत्यन्त उत्कृष्ट रचना है।
  • घटकर्पर: इसके रचयिता का नाम भी घटकर्पर ही प्रसिद्ध है। इसमें केवल 22 पद्य हैं तथा इसका कथानक पात्र की दृष्टि से मेघदूत से उल्टा है। अर्थात् वर्षा ऋतु के आ जाने पर एक नवविवाहिता विरहिणी मेघ के द्वारा अपने पति के पास सन्देश भिजवाती है। इस पूरे काव्य में यमक अलंकार का बहुल प्रयोग है।
  • भर्तृहरि के शतकत्रय: भर्तृहरि का व्यक्तित्व एवं स्थिति काल अत्यधिक विवादास्पद है। अधिकांश विद्वान भर्तृहरि का समय छठी शती का अन्त मानते हैं। भर्तृहरि ने तीन शतकों की रचना की है-नीति शतक, श्रृंगार शतक और वैराग्य शतक। शतकों के नाम के अनुरूप ही इनमें क्रमशः नीति, श्रृंगार और वैराग्य का सरस चित्रण है। इन शतकों में प्रायः सभी प्रचलित छन्दों का प्रयोग किया गया है। भर्तृहरि ने अपने विचारों की पुष्टि में प्रतिदिन के जीवन के अनुरूप उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। इसलिए भर्तृहरि के कथन सूक्ति बन कर लोक में पर्याप्त प्रचलित हो गये।
  • अमरूक शतक: अमरूक अथवा अमरू नाम से विख्यात इस कवि के शतक में प्रणय और श्रृंगार कला ललित और मनोरम भंगियों के सर्वोत्तम चित्र उपलब्ध होते हैं। रचना शैली के आधार पर इनका समय 700 ई. माना जाता है। साहित्यिक दृष्टि से यह अत्यन्त महत्वपूर्ण रचना मानी जाती है। संस्कृत के काव्यशास्त्रीय आचार्यो के शास्त्र ग्रन्थ इस शतक के उदाहरणों से भरे पड़े हैं। अमरूक ने ‘गागर में सागर’ की उक्ति चरितार्थ कर दी है, फिर भी ये सरल एवं सुबोध हैं।
  • चौर पंचाशिका: कश्मीरी कवि बिल्हण इसके रचयिता हैं जिन्होंने ऐतिहासिक महाकाव्य विक्रमांकदेवचरित की रचना की थी। इस लघु गीतिकाव्य में 50 पद्य हैं। इसकी भाषा सरल एवं प्रवाहपूर्ण है। प्रत्येक पद्य ‘अद्यापि’ से प्रारम्भ होता है तथा सम्पूर्ण गीतिकाव्य में श्रृंगार रस चित्रित है।
  • आर्या सप्तशती: यह गोवर्धनाचार्य की कृति है जो बंगाल के राजा लक्ष्मणसेन (1116 ई.) के आश्रित कवि थे। जैसा नाम से ही स्पष्ट है, यह सम्पूर्ण गीतिकाव्य आर्याछन्द में ही लिखा गया है। श्रृंगार की विभिन्न अवस्थाओं का वर्णन इस काव्य में बहुत मार्मिकता से हुआ है। परवर्ती युग में हिन्दी के प्रसिद्ध कवि बिहारी की सतसई का प्रेरणादायक ग्रन्थ यही आर्या सप्तशती है।
  • गीतगोविन्द: महाकवि जयदेव ने इस अमृतमय काव्य की रचना की थी। ये भी राजा लक्ष्मणसेन की सभा में थे। अतः इनका स्थितिकाल भी बारहवीं सदी ईस्वी है। जयदेव ने श्लोक, गद्य एवं गीत के मिश्रण से एक अद्भुत काव्यशैली का सूत्रपात किया। इस काव्य में नायक कृष्ण हैं तथा नायिका राधा। इन दोनों के पारस्परिक श्रृंगार की आशा, निराशा, ईर्ष्या, मान, कोप, मानभंग, विरह, मिलन आदि विभिन्न दशाओं का सरस चित्रण इस काव्य में है। गीतगोविन्द जैसा साहित्यिक सौन्दर्य एवं माधुर्य अन्य किसी काव्य में मिलना दुष्कर ही है। कोमलकान्त पदावली के साथ ललित अनुप्रास युक्त छन्दों ने इस काव्य में रमणीय गेयता उत्पन्न कर दी है। महाप्रभु चैतन्य ने गीतगोविन्द की काव्यमाधुरी के अनन्य उपासक रहे। आज भी वैष्णव समाज में जयदेव के पद्य बहुत प्रचलित हैं।
  • भामिनी विलास: प्रसिद्ध अलंकार शास्त्री पण्डितराज जगन्नाथ ने (1650-80 ई.) इस काव्य की रचना की थी। मुगल सम्राट शाहजहां ने इन्हें, अपने पुत्र दाराशिकोह को संस्कृत पढ़ाने का कार्य दिया था तथा इनके पाण्डित्य से प्रसन्न होकर पण्डितराज की उपाधि दी थी। जगन्नाथा ने अनेक ग्रन्थों की रचना की। भामिनी विलास में चार (खण्ड) हैं जिनमें कवि ने श्रृंगार, करूणा तथा शान्त रस से सम्बद्ध मुक्तकों की रचना की है। पद्यों की गेयता के कारण इनकी मनोहारिता भी बढ़ गयी है। संस्कृत के उपर्युक्त प्रसिद्ध खण्डकाव्यों के अतिरिक्त भी अनेक खण्ड काव्यों की रचना हुई है। इनमें, श्रृंगारतिलक, भल्लटशतक, श्रृंगारघनदशतकम्, तत्वतरंगिणी आदि भी रसिकसमाज में समादृत हुए हैं।

 

बौद्ध साहित्य

अधिकांश साहित्य पाली भाषा में बाद के साहित्य संस्कृत में भी हैं। बौद्ध साहित्य में त्रिपिटक का महत्व सर्वाधिक है। ये हैं- सुत्तपिटक (उपदेश), (संघ के नियम), अभिधम्मपिटक (दर्शन)।

  • सुत्तपिटक: इसमें बुद्ध के उपदेश हैं। यह सर्वाधिक विस्तृत एवं प्रमुख है। इसका विभाजन पांच निकायों में हुआ हैं। दीर्घनिकाय में बुद्ध के शिक्षा और संवादों का संकलन है। खुद्दक निकाय में बौद्ध दर्शन से संबंधित 15 ग्रंथों का संकलन है। इसमें धम्मपद, सुत्तनिपात, थेरीगाथा, थेरगाथा, जातककथा शामिल है। बौद्ध धर्म में धम्मपद की तुलना गीता से की जाती है। (चीनी त्रिपिटकों में इसके अनुवाद मिलते हैं)। जातक कथा में बुद्ध के पर्व जन्म की घटना का वर्णन है। मज्झिम निकाय, संयुक्त निकाय, अंगुत्तर निकाय अन्य निकाय हैं।
  • विनयपटिक: इसमें संघ से संबंधित नियम हैं। इसके चार भाग हैं- सुत्तविभंग, खंदक, पतिमुक्ख एवं परिवार पाठ।
  • अभिधम्मपिटक: इसमें बुद्ध की शिक्षा का दार्शनिक विवेचन है एवं आध्यात्मिक विचारों को समाविष्ट किया गया है। इस पिटक से संबंधित सात ग्रंथ हैं जो प्रश्नोत्तर शैली में लिखे गये हैं जिनमें मोग्गलिपुत्त तिस्त रचित कथावत्थु सबसे महत्वपूर्ण है।
  • त्रिपिटक के बाद सर्वाधिक महत्वपूर्ण ग्रंथ है मिलिन्दपन्हों। इसमें ग्रीक राजा मिनांडर एवं बौद्ध विद्वान नागसेन के बीच प्रश्नोत्तर है। दीवंश, महावंश क्रमशः चौथी, पांचवी सदी ई. में रचित श्रीलंकाई बौद्ध महाकाव्य है।
  • आगमों का सबसे बड़ा टीकाकार बुद्धघोष है। उन्होंने विशुद्धिमग्ग की रचना की जो बौद्ध सिद्धांतों पर आधारित प्रमाणिक दार्शनिक ग्रंथ है।
  • महायान साहित्य: महायान संप्रदाय के साहित्य अधिकांशतः संस्कृत में लिखे गये हैं। आरंभिक पुस्तक ललित विस्तार है जो बुद्ध की प्राचीनतम् जीवनी है, इसमें विभिन्न प्रकार के लिपियों का वर्णन है। एड्विन अर्नोल्ड ने इसे द लाइट ऑफ एशिया’ नाम से अनुदित किया। महायान संप्रदाय का सबसे महत्वपूर्ण दार्शनिक पुस्तक प्रज्ञापारमिता है। पारमिता का अर्थ उन गुणों की प्राप्ति है जो बुद्धत्व प्राप्ति के लिए आवश्यक है। महायान साहित्य में दंतकथाओं का भी भंडार है, इन कथाओं को अवदान कहते है। कुछ प्रमुख अवदान हैं: अवदान शतक, दिव्यावदान, अवदान कल्पलता (क्षेमेन्द्र रचित)।
  • कुछ अन्य बौद्ध ग्रंथ: नागार्जुन- सहस्रप्रज्ञापारमिता, आर्यदेव, चतुश्शतक, एवं का वसुबंधु अभिधम्मकोष।

 

जैन साहित्य

  • प्राचीनतम् जैन ग्रंथ पूर्व कहे जाते थे। कहा जाता है कि इसकी जानकारी सिर्फ भद्रबाहु को थी। उसके दक्षिण चले जाने पर स्थूलभद्र ने एक सभा आयोजित किया जिसमें 14 पूर्वो को स्थान 12 अंगों ने ले लिया।
  • पूर्वों में महावीर द्वारा प्रचारित सिद्धांत संग्रहित थे जिसे स्वंय महावीर ने अर्धमागधी प्राकृत भाषा में अपने शिष्यों तक पहुंचाया था। श्वेताम्बर के आगमों में 12 अंग, 12 उपांग, 10 प्रकीर्ण, 6 छंदसूत्र/भेदसूत्र, 4 मूलसूत्र एवं अनुयोगसूत्र हैं।
  • प्रारंभिक जैन आचार्यों ने अर्द्धमागधी भाषा को अपनाया। आगे चलकर इसने उत्तर भारत में अपभ्रंश, गुजराती, राजस्थानी आदि के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई दक्षिण भारत में तमिल, तेलगु, कन्नड़, मराठी के विकास में भी आचार्यों ने भूमिका निभाई।
  • हेमचंद्र के लेखन के आधार पर जैन धर्म से संबंधित तिथियां स्पष्ट की जाती है। उसी ने अपभ्रंश भाषा को व्याकरणबद्ध किया।

व्याकरण साहित्य

  • प्राचीन भारतीय लेखकों का ध्यान व्याकरण, शब्द-व्युत्पत्तिशास्त्र, शब्दकोष शास्त्र, छन्द शास्त्र और अलंकार शास्त्र की ओर भी गया था। व्युत्पत्तिशास्त्रीय तथा ध्वनिशास्त्रीय प्राचीनतम ग्रंथ यास्क के नैचण्टुक और निरूक्त, जो अपनी वैदिक शब्दावली के लिए विख्यात है और ध्वनि संबंधी ग्रंथ हैं।
  • अष्टाध्यायी- पाणिनि कृत आठ अध्याय में बनी इस प्रख्यात व्याकरण ग्रन्थ ने अपने पूर्ववर्ती कई वैयाकरणों का उल्लेख किया है, जिनमें शाकटायन और शकल्य, गार्ग्य, और गालव भी हैं। ऐसा माना जाता है कि पाणिनि को व्याकरण का ज्ञान 14 सूत्रें के रूप में स्वंय शिव ने दिया था। इन चौदह सूत्रें को महेश्वरसूत्रणि कहा जाता है। पाणिनि की अष्टाध्यायी में लगभग 4000 सूत्र हैं, जो केवल दो-दो या तीन-तीन शब्दों के ही हैं। इस ग्रंथ में, जो एक प्रकार की आशुलिपि सी में लिखा गया करने के लिए एक अक्षर या शब्दांश का प्रयोग किया गया है। पाणिनि द्वारा बनाए गए व्याकरण के नियम शिष्ट लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषा पर लागू होते थे। उसके ग्रंथ का रचना काल ईसा पूर्व की छठी और पांचवी शताब्दियों के बीच माना जाता है।
  • उसके इस ग्रंथ का एक परिशिष्ट कात्यायन ने वार्तिक अर्थात संशोधक के रूप में प्रस्तुत किया, जिसमें उसने पाणिनि के नियमों पर विमर्श, किया उनकी व्याख्या की ओर उसमें परिवर्धन किया। इस प्रकार उसने पाणिनि के व्याकरण को श्रेण्य संस्कृत के अनुकूल बना दिया। संस्कृत का लेखन उस समय शुरू हो चला था। इस प्रकार पाणिनि के कुछ नियमों को कात्यायन ने अप्रचलित बना दिया।
  • अष्टाध्यायी की बड़ी व्याख्या पंतजलि ने महाभाष्य के रूप में की, जिसमें वार्तिकी को भी सम्मिलित किया गया। तीन महान वैयाकरणों में से वह अंतिम था। उसने ब्राह्मण पंडितों के लिए अपने ग्रंथ की रचना उस समय की, जिस समय व्याकरण में लोगों की रूचि घट रही थी और संस्कृत भाषा की शुद्धता नष्ट हो रही थी। पतंजलि पुष्यमित्र शुंग (ईसा पूर्व की दूसरी शताब्दी) का समकालीन था और उसने अपने ग्रंथ में उसका कई बार उल्लेख भी किया है। इस भाष्यकार ने व्याकरण के नियमों को स्पष्ट करने के लिए जो वैयक्ति उदाहरण दिए हैं, उनसे उसके काल के भारत का चित्र भी उपस्थित हो जाता है।
  • व्याकरण का अध्ययन भर्तृहरि (मृत्यु 651 ईस्वी में) ने भी किया और उसने अपने ग्रंथ वाक्यद्वीप में महाभारत पर टीका की। वाक्यपदीय पद्य में लिखा गया है और इसके तीन खंड हैं। उसके बाद एक अन्य टीकाकरण कैयट (ईसा की बारहवीं शताब्दी) हुआ। जयादित्य और वामन ने इत्सिंग के आने (ईसा की सातवीं शताब्दी) से पहले पाणिनि की अष्टाध्यायी की टीका काशिकावृत्ति लिखी।

खगोल विज्ञान एवं चिकित्सा साहित्य

  • संस्कृत में भैषज्य, शल्य क्रिया, गणित, फलित ज्योतिष और गणित ज्योतिष (खगोल विज्ञान) जैसे वैज्ञानिक विषयों का साहित्य उतना ही समृद्ध है, जितना व्याकरण, व्युत्पत्ति शास्त्र, छंद शास्त्र, अलंकार शास्त्र, संगीत तथा स्थापत्य जैसी मानविकी विद्याओं का साहित्य।
  • गणित विज्ञानों के क्षेत्र में भी अंकों तथा दशमलव पद्धति के आविष्कारों के रूप में प्राचीन भारतीयों की उपलब्धि बहुत काफी थी। सबसे पुराने, इस समय विद्यमान गणितीय लेख वैदिक शुल्व सूत्र हैं, जो एक प्रकार की कर्मकांडीय ज्यामिति के सूचक हैं, जिसका प्रयोग वेदियों के निर्माण के लिए किया जाता था। इसमें समकोणों, वर्गो तथा आयतों की रचना भी आ जाती है और पाइथागोरस का यह सिद्धांत भी, कि कर्ण का वर्ग अन्य दो रेखाओं के वर्ग के बराबर होता है। उत्तरकालीन गणितज्ञों ने ज्या-पफलक (साइन टेबल) का आविष्कार करके त्रिकोणमिति में भी प्रगति की।
  • पांचवीं शताब्दी से ही भारतीय गणितज्ञों का, जिनमें वराहमिहिर भी सम्मिलित हैं, बड़प्पन उनके द्वारा बीजगणित तथा अंकगणित के क्षेत्रें में की गई। ज्योतिषियों के गणितीय अध्याय श्लोकों में लिखे में लिखे गए हैं। भारतीय ज्योतिष शास्त्र (खगोल विज्ञान) की पूर्वतम रचनाओं में, जो वैज्ञानिक ढंग की हैं और 300 ईस्वी के आसपास लिखि जानी शुरू हुई थीं, सिद्धांत अर्थात् सिद्धांत विषयक मूल ग्रंथ भी थे, जिनमें से अब केवल एक सूर्यसिद्धांत ही प्राप्त होता है। भारतीय ज्योतिष (खगोल विज्ञान) का संस्थापक आर्यभट्ट (पांचवी शताब्दी) था, जिसने सबसे पहले यह सिद्धांत प्रतिपादित किया था कि पृथ्वी अपने कक्ष (ध्रुरी) पर घूमती है। उसके ग्रंथ का नाम हैः आर्यभट्टीम।
  • महान ज्योतिषी वराहमिहिर (छठी शताब्दी) अपने पंच सिद्धांतक, जो एक व्यावहारिक ज्योतिष ग्रंथ है और बहुल संहिता के कारण प्रसिद्ध है। यह बहुल संहिता वृहत् महाकाव्यों की शैली में लिखि गई है।
  • बृह्मगुप्त (सातवीं शताब्दी) ने अपना बृह्म स्फुटिक सिद्धांत लिखा और ज्योतिषियों की इस परंपरा में अंतिम था, प्रसिद्ध भास्कराचार्य (बारहवीं शताब्दी) जिसने सिद्धांत शिरोमणि अर्थात् सिद्धांत का शिरोमणि लिखा।
  • भैषज्य तथा शल्य शास्त्र पर लिखे गए ग्रंथों में चरक संहिता और सुश्रुत संहिता आती हैं, जिनके नाम उनके लेखेकों के नाम पर पड़े हैं। इनमे से पहला भैषज्य का और दूसरा शल्य शास्त्र का ग्रंथ है। ये दोनों ही ईसा की दूसरी शताब्दी के हैं। भैषज्य विज्ञान अर्थात् चिकित्सा की कला के उल्लेख अथर्ववेद में इस रूप में प्राप्त होते हैं कि उसमें अनेक रोगों की और साथ ही महत्वपूर्ण जड़ी बूटियों की भी चर्चा है।
  • चरक और सुश्रुत के पश्चात् भैषज्य का सबसे महत्वपूर्ण लेखक वाग्भट (600 ईस्वी) हुआ, जिसने अष्टांगह्नदय लिखा। भैषज्य विषयक बहुत से ग्रंथों का बगदाद के खलीफा के आदेश से अरबी में अनुवाद किया गया।

गद्य एवं कथा साहित्य

  • वासवदत्ता: इस गद्यकाव्य के रचयिता सुबन्धु है। कुसुमपुर की राजपुत्री वासवदत्ता तथा एक राजकुमार कन्दर्पकेतु के पारस्परिक प्रणय की विघ्नयुक्त कथा का इस गद्यकाव्य में वर्णन है। इसमें कथानक अत्यन्त संक्षिप्त है जिसे सुबन्धु ने पाण्डित्य युक्त लम्बे वर्णनों से अत्यन्त दीर्घ कर दिया है। अलंकार बहुलता दीर्घ समास तथा श्लेष के आधिक्य के कारण यह रचना सरस की अपेक्षा दुरूह अधिक है।
  • हर्षचरित: सम्राट हर्षवर्धन के सभापण्डित बाणभट्ट इसके रचयिता हैं। इनका समय सातवीं शती का पूर्वार्द्ध है। हर्षचरित ऐतिहासिक काव्य माना जाता है। सप्तम शती के भारत का एक अत्यन्त प्रामाणिक चित्र इसमें प्राप्त होता है। बाणभट्ट ने इसमें हर्षवर्धन के वंश तथा जीवन चरित का वर्णन किया है। बाणभट्ट ने अपने पूर्ववर्ती अनेक मान्य क%