प्रागैतिहासिक काल

प्रागैतिहासिक काल

प्रागैतिहासिक वह वह काल है, जिसके अध्ययन के लिए पुरातात्विक सामग्री तो उपलब्ध है, किंतु लिखित प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं। इस समय आदमी, आदमी की तरह तो था लेकिन आदमी नहीं था।

पुरातात्विक सामग्रियों की काल गणना के लिए कार्बन-14  विधि का प्रयोग करते रहते हैं। इसके पिछे सिद्धांत यह है कि सौर विकिरण रेडियोधर्मी कार्बन-14 उत्पन्न करता है। प्रत्येक कार्बनिक पदार्थ वातावरण में उपस्थित कार्बन खींचते  हैं। जब कार्बनिक पदार्थ निर्जीव हो जाते हैं, तो उसमें जमाव की प्रवृत्ति समाप्त हो जाती है और जमे हुए कार्बन का विघटन होने लगता है। कार्बन-14 रेडियो कार्बन का आधा जीवनकाल 5730+40 वर्ष माना जाता है।

  • प्रागैतिहासिक पंचांग: अनुमानतः आज से 6 अरब वर्ष पूर्व पृथ्वी दक दहकते हुए अंगारे की भांति किसी विशेष ब्रह्यांडीय घटना के द्वारा सूर्य से अलग हुई थी, तब से लेकर आज तक के समय अंतराल को 6 महायुगों (Eras) में विभाजित किया गया है-
  1. एजोइक
  2. आर्कियोजोइक पूर्व कैम्ब्रियन महायुग
  3. प्रोटिरोजोइक
  4. पैलियोजोइक
  5. मिसोजोइक
  6. सिनोजोइक/ नियोजोइक।

 

  • पाषाणकालीन संस्कृतियों का विभाजन: पाषाणकालीन मानव की संस्कृतियों में क्रमिक रूप से विकास हुआ था, अतएव आमतौर पर विशेष रूप से इसे तीन भागों में विभाजित करते हैं:
  1. पुरापाषाण काल
  2. मध्यपाषाण काल
  3. नवपाषाण काल।

 

पुरापाषाण काल

  • पुरापाषाण काल (च्ंसमवजीपब) की संस्कृतियों को तीन भागों में बांटा गया है:
  • निम्न पुरापाषाण काल (स्वूमत च्ंसमवसपजीपब): इस युग के औजारों के प्रयोगकर्त्ता होमो इरेक्टस थे। इस युग के उपकरण पेबुल (बाटिकाश्म), हैंड एक्स (हस्त कुठार), क्लीवर (विदारणी), चापर थे। इस काल का सबसे महत्वपूर्ण उपकरण हैंड एक्स था, जो चर्ट एवं क्वार्टजाइट के बने होते थे, ये पहले औजार थे, जिसे मनुष्य ने क्रिया करके निर्मित किया। इसे चापर-चापिंग भी कहा गया।
  • मध्यपुरापाषाण काल (डपककसम च्ंसमवसपजीपब): इस काल में संस्कारों की शुरूआत हुई, जैसे- शवों को दफनाना आदि। औजार- स्क्रैपर (खुरचनी), बोरर (वेधक)। आग का नियमित प्रयोग होने लगा (इस युग में मानव गुफा निवासी हो चुका था)।
  • उच्च पुरापाषाण काल (न्चचमत च्ंसमवसपजीपब): इस काल के अभिकर्ता होमोसेपियन्स थे। मुख्य उपकरण ब्लेड था। हड्डियों के औजारों का प्रयोग होने लगा, जैसे मछली मारने के कांटे। पहले प्रक्षेप्रास्त्र (तीर, धनुष या भाला) का प्रयोग इस काल में हुआ। आवास निर्माण तथा कुछ हद तक सामाजिक विभेदीकरण प्रारंभ हो गया।
  • भारत में पुरातत्व की शुरूआत दक्षिण भारत में मद्रास के निकट पल्लावरम् नामक स्थान में रॉबर्ट ब्रूसफ्रुट ने 1863 में किया। एच-डी- संकालिया ने भारतीय पुरातत्व को वैज्ञानिक आधार प्रदान किया और दक्षिण भारत के विभिन्न क्षेत्रें में उत्खनन करवाए, जिसके कारण उन्हें भारतीय पुरातत्व का पिता भी कहा जाता है। दक्षिण भारतीय पुरापाषाणिक संस्कृति को मद्रासियन संस्कृति भी कहा जाता है। कोर्तलयार नदी घाटी से इस संस्कृति के उपकरण मिले हैं।
  • पुरापाषाणकालीन स्थल: बेलघाटी (मिर्जापुर) यह सबसे महत्वपूर्ण स्थल है। यहां से निम्न, मध्य एवं उच्च पुरापाषाण काल के साक्ष्य उपलब्ध हैं। यहां के लोहंदा नाला से हड्डी की बनी हुई मातृदेवी की एक मूर्ति प्राप्त हुई है।
  • भीमबेटका (मध्य प्रदेश का रायसेन जिला) यहां से लगभग 500 शैलाश्रय प्राप्त हुए हैं। गुफाओं में निर्मित चित्र उच्च पुरापाषाण काल के माने जाते है। यहां के कुछ गुपफ़ाओं से फर्श निर्माण के भी संकेत मिले हैं।
  • नर्मदा घाटी क्षेत्र: मध्य नर्मदा घाटी के हथनौरा (होशंगाबाद) से एक मानव की खोपड़ी मिली, जिसे होमो इरेक्टस वर्ग का माना जाता है (भारत से यही एकमात्र मानवजीवाश्म मिला है कारण यहां की जलवायु की स्थिति)।
  • सोहन नदी घाटी में क्रमिक विकास दिखायी देता है।

मध्यपाषाण काल

  • भारत में मध्यपाषाण काल के विषय में जानकारी सर्वप्रथम सी-एल-कार्लाइल द्वारा सन् 1867 ई. में विंध्यन क्षेत्र से लघुपाषाणोपकरण खोजे जाने से हुई।
  • इस काल के अधिकांश उपकरण चर्ट एवं चार्ल्सडेनी जैसे मुलायम पत्थर के बने होते थे तथा आकार में बहुत छोटे होते थे, इसलिए इस काल के उपकरण को माइक्रोलिथिक टूल्स भी कहा जाता है।
  • इस काल में संस्कारों का प्रयोग व्यापक पैमाने पर होने लगा एवं शिकार के साथ-साथ जंगली अनाजों का भी प्रयोग होने लगा, कुत्ते को पालतू बनाया गया एवं श्रंृगार साधनों का इस्तेमाल होने लगा।

 

मध्यपाषाणकालीन स्थल

  • बागोर (राजस्थान के भिलवाड़ा जिले में): कोठारी नदी के किनारे पर उत्खनन किया गया है। यहां से कुछ झोपड़ियों और इसके अंदर फर्श निर्माण के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं, कई मानव कंकाल मिले हैं, जन्हें निश्चित दिशा में दफनाया गया है, जिसमें से एक कंकाल का सिर पश्चिम दिशा में और पैर पूर्व दिशा में है। हस्त-निर्मित मृदभांडों के साक्ष्य भी प्राप्त होते हैं।
  • आदमगढ़ (मध्यप्रदेश): होशंगाबाद जिले में स्थित है। यहां से भी पशुपालन के साक्ष्य मिलते हैं।
  • भीमबेटका (मध्यप्रदेश): खोज वी-एम वाकरकण द्वारा 1958 ई. में किया गया। यहां की गुफाओं से जंगली सांड, रीछ, बारहसिंहा तथा मैमथ के चित्र मिलते हैं। इसे जुलाई 2003 में विश्व धरोहर घोषित किया गया। वर्तमान में यह रातापानी अभ्यारण्य का अंश है।

 

उत्तर/नवपाषाण का

  • इस काल में हुए परिवर्तनों को गार्डन चाइल्ड ने नवपाषाण क्रांति कहा। इस काल में मनुष्य का जीवन स्थायी हो गया, गांव आबाद होने शुरू हो गए, सामुदायिक क्रियाकलाप (संस्कार) होने लगे। राजनैतिक संस्थाओं की शुरूआत, उपजाऊ जमीन का उपयोग होने लगा, जनसंख्या में वृद्धि हुई, विशेषज्ञता प्राप्त समुदाय (शिल्पी) का विकास, श्रम विभाजन का प्रारंभ, प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की शुरूआत, कम स्तर पर व्यापार-वाणिज्य (वस्तु-विनिमय) की शुरूआत।
  • उपकरण: बेसाल्ट, डोलेराइट, पत्थर को औजार बनाने में प्रयोग किया गया। इस काल के उपकरणों की विशेषता थी घर्षित होना। नवपाषाण काल का मुख्य उपकरण कुल्हाड़ी था।
  • मेहरगढ़ (बलूचिस्तान-पाकिस्तान): यहां से नवपाषाण से कांस्य काल तक के अवशेष मिले हैं। गेहूं, जौ आदि के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं (इसे बलूचिस्तान की टोकरी कहते हैं)।
  • कोल्डीहवा (इलाहाबाद): बेलन नदी के किनारे पर, धान के जले हुए दाने, धान की खेती का प्रमाण (चावल के प्राचीनतम् साक्ष्य)। अनाज रखने के मिट्टी के घड़े भी मिलते हैं।
  • बुर्जहोम: नवपाषाणकाल के तीन चरण मिलते हैं पहले चरण में गड्ढे खोदकर आवास बनाये गये हैं (गर्त आवास), दूसरे चरण में झोपड़ी का साक्ष्य एवं तीसरे चरण में कंकड़-मिट्टी आदि से घर के निर्माण का साक्ष्य मिले हैं। यहां के लोग कृषि से परिचित थे, पशुओं को पालतू बनाया जाता था, बर्जहोम से मालिक के साथ पालतू कुत्ते को दफनाये जाने का साक्ष्य मिला है, जो उत्तरी चीन की नवपाषाणिक पंरपरा से प्रेरित प्रतीत होता है।
  • दक्षिण भारत: सर्वप्रथम आर- बी- फ्रूट को दक्षिण भारत में नवपाषाणिक स्थल की जानकारी मिली। राख के टीलों से पशुबाड़ा होने का साक्ष्य सर्वाधिक केरल से प्राप्त होता है। दक्षिण भारत में नवपाषाण काल के तीन चरण प्राप्त होते हैं। पहले चरण में हस्तनिर्मित धूसर मृदभांड, दूसरे चरण में हस्तनिर्मित चमकीले धूसर मृदभांड एवं तीसरे चरण में चाक निर्मित मृद्भांडों का साक्ष्य मिलता है। घरों को गोबर, मिट्टी और चूना मिलाकर लेपन करने का प्रमाण मिलता है। दक्षिण भारत के नवपाषाणिक स्थलों द्वारा उगायी गयी सबसे पहली फसल मिलेट (रागी) थी।

ताम्र पाषाण काल

  • संपूर्ण भारत में ग्रामीण कृषक समुदायों का गठन ताम्रपाषाणिक काल में हुआ माना जाता है। वस्तुतः आधुनिक भारत के संदर्भ में इस काल का महत्व बहुत अधिक बढ़ जाता है। आज हमें उसी प्रकार के क्षेत्रीय गांव, घर और क्षेत्रीय फसल पद्धति, पशुपालन पर वैसी ही निर्भरता, उसी प्रकार की बस्तियां, दस्तकारियों के उन्हीं पुराने कार्यों की निरंतरता और उन्हीं प्रमुख्पा मार्गों का सुदृढ़ीकरण दिखाई देता है, जिनसे होकर कच्चे और तैयार माल का व्यापार और विनिमय होता था और शायद कर्मकांडीय आचार-व्यवहारों का वहीं ढांचा आज भी विद्यमान है।
  • नवपाषाण काल के बाद सांस्कृतिक विशेषताओं का आधार मृतभांड हो जाता है। मृद्भांडों का क्रय इस प्रकार है- Black on Red, Black and Red, OCP,PGW, NBPW।
  • प्राक् हड़प्पा संस्कृति की कुछ मुख्य बातें: नहर और सिंचाई का प्रयोग, पशुओं को समान ढोने के लिए प्रयोग में लाना, पालदार नाव का प्रयोग, खेती में हल का प्रयोग, बागवानी, मुद्रा लिपि एवं अंकों का अविष्कार। प्रमुख प्राक् हड़प्पीय स्थल कोटदीजी एवं कालीबंगा है। कोटदीजी में सुरक्षा दीवार के अंदर कच्ची ईंटों से बने हुए भवन मिले हैं, जिसकी नींव पत्थरों की है। डीलयुक्त सांड की मूर्ति प्राप्त हुई है, जो सैंधव सभ्यता की महत्वपूर्ण विशेषता है। कालीबंगा में भी प्राक् हड़प्पीय संस्कृति के भी साक्ष्य मिले हैं।
  • प्राक् हड़प्पीय काल की कुछ महत्वपूर्ण विशेषताएं: इस काल में सुरक्षा प्राचीर बनाये जाने लगे, जैसे मुडीगाक, कोटदीजी में। मेहरगढ़ में चबूतरे के निर्माण का साक्ष्य मिला है, जिस पर संभवतः बाजार लगता था। मुंडीगाक (अफगानिस्तान) से दुकान एवं घरों के अवशेष मिले हैं, जो कि योजनाबद्ध रूप से बनाये गए हैं।
  • अहाड़ संस्कृति: इसे बनास/ताम्रवती संस्कृति भी कहते हैं। स्थल, अहाड़, गिलुंद, बालाथल। गिलुंद से पकी हुई ईंटों का साक्ष्य मिला है। संभवतः इस क्षेत्र के लोग अधिकांशतः मिट्टी बनाते थे, काले एवं लाल रंग के मृद्भांड, जिस पर सफेद रंग की डिजाइन बनी हुई थी, इस संस्कृति की मुख्य विशेषता थी। तांबे का सर्वाधिक उपयोग होने के कारण इसे ताबंवती भी कहते हैं।
  • कायथा संस्कृति (म.प्र.): यह चंबल नदी के क्षेत्र में स्थित है। इसे हड़प्पा की कनिष्ठ समकालीन संस्कृति भी कहते हैं। यहां के मृदभांड व काले रंग के होते थे।
  • नवदाटोली (महाराष्ट्र): नर्मदा तट पर, मातृदेवी की मूर्ति प्राप्त होने वाले ताम्र पाषाणिक स्थलों में दूसरा सबसे बड़ा स्थल है।
  • मालवा संस्कृति: एरण से मिट्टी के परकोटे एवं मिट्टी के बने पहिए का साक्ष्य। नागदा से कच्ची ईंटों का बना हुआ बुर्ज, स्टैण्ड पर रखी हुई तस्तरी का साक्ष्य, जो धार्मिक कर्मकांड को दर्शाती है।
  • दायमाबाद, जो सबसे बड़ा ताम्रपाषाणिक स्थल है, यह शहर बनने की ओर उन्मुख था। यहां से तांबे का रथ चलाता हुआ मनुष्य, सांड, गैंडे एवं हाथी की आकृति प्राप्त होती है। यहां से पात्र पर एक देवता को एक बाघ एवं मोर से घिरा हुआ दिखाया गया है, जो संभवतः पशुपति का रूप रहा हो।
  • तकनीकी दृष्टि से ताम्रपाषाणिक अवस्था का प्रयोग हड़प्पासे पहले की संस्कृति के लिए होता है, लेकिन कालक्रम की दृष्टि से यह उसके बाद तक अस्तित्व में रही।

महापाषाण काल

  • दक्षिण भारत में नवपाषाण काल के बाद महापाषाण कालीन कब्रों का क्रम मिलता है। यहां से कोई भी आवासीय स्थल नहीं मिला है। उनकी विशेषता केवल कब्रों के आधार पर बतायी गई है। यहां की मुख्य विशेषता शवाधान प्रणाली है।
  • महापाषाणिक विशेषताएं: महापाषाणिक लोग लोहे का प्रयोग करते थे। लौह उपकरणों में अधिकांशतः तीर, भाला जैसे शस्त्र मिले हैं। इनका निवास क्षेत्र पहाड़ी ढलान या नदियों का किनारा होता था। ये लोग सिंचाई के साधनों से परिचित थे। ये रागी और धान की खेती भी करते थे। कुछ महापाषाणिक स्थलों से रोमन सिक्के प्राप्त होते हैं, जिससे उनका रोमन व्यापारिक संबंध भी परिलक्षित होता है।

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