लोक वाद्य व लोक नृत्य
सामान्य जन में प्रचलित “वाद्य” यन्त्र को लोक वाद्य कहा जाता है।
लोक वाद्यों को सामान्यतः चार प्रकार से जाना जा सकता है : (1) तत् वाद्य (2) घन वाद्य (3) अवनद्ध वाद्य (4) सुषिर वाद्य
घन वाद्य
अवनद्ध वाद्य
सुषिर वाद्य
तत् वाद्य
(चोट या आघात से स्वर उत्पन्न करने वाले वाद्य)
(चमड़े से मढ़े हुए लोक वाद्य)
(जो वाद्य फूंक से बजते हो)
(तारों के द्वारा स्वर उत्पन्न करने वाले वाद्य)
मंजीरा, झांझ, थाली, रमझौल, करताल, खड़ताल, झालर, घुंघरु, घंटा, घुरालियां, भरनी, श्रीमंडल, झांझ, कागरच्छ, लेजिम, तासली, डांडिया।
चंग, डफ, धौंसा, तासा, खंजरी, मांदल, मृदंग, पखावज, डमरू, ढोलक, नौबत, दमामा, टामक (बंब), नगाड़ा।
बांसुरी, अलगोजा, शहनाई, पूंगी, सतारा, मशक, नड़, मोरचंग, सुरणाई, भूंगल, मुरली, बांकिया, नागफनी, टोटो, करणा, तुरही, तरपी, कानी।
जन्तर, इकतारा, रावणहत्था, चिंकारा, सारंगी, कामायचा, सुरिन्दा, रबाज, तन्दूरा, रबाब, दुकाको, सुरिन्दा, भपंग, सुरमण्डल, केनरा, पावरा।
घन वाद्य –
ये वाद्य धातु से निर्मित होते है, जिनको आपस में टकराकर या डण्डे की सहायता से बजाया जाता है।
प्रमुख घन वाद्य –
1. घुंघरु
❖लोक नर्तकों एवं कलाकारों का प्रिय वाद्य ‘घुंघरु’ पीतल या कांसे का बेरनुमा मणि का होता है। इसका नीचे का भाग कुछ फटा हुआ होता है तथा अन्दर एक लोहे, शीशे की गोली या छोटा कंकर डाला हुआ होता है जिसके हिलने से मधुर ध्वनि निकलती है।
❖भोपे लोगों के कमर में बांधने वाले घुंघरु काफी बड़े होते है।
बच्चों की करधनी तथा स्त्रियों की पायल आदि गहनों में लगने वाले घुंघरु बहुत छोटे होते हैं। उनमें गोली नहीं होती वरन् परस्पर टकराकर ही छम-छम ध्वनि करते हैं।
❖नर्तक (स्त्री-पुरुष) के पैरों में घुंघरु होने से छम-छम की आवाज बहुत मधुर लगती है।
2. करताल (कठताल)
❖नारद मुनि के नारायण-नारायण करते समय एक हाथ में इकतारा तथा दूसरे साथ में करताल ही होती है।
❖यह युग्म साज है।
❖इसके एक भाग के बीच में हाथ का अंगुठा समाने लायक छेद होता है तथा दूसरे भाग के बीच में चारों अंगुलियां समाने लायक लम्बा छेद होता है। इसके ऊपर-नीचे की गोलाई के बीच में, लम्बे-लम्बे छेद कर दो-दो झांझे बीच में कील डालकर पोई जाती है। दोनों भागों को अंगुठे और अंगुलियों में डालकर एक ही साथ में पकड़ा जाता है तथा मुट्ठी को खोलने-बंद करने की प्रक्रिया से इन्हें परस्पर आघातित करके बजाया जाता है।
❖हाथ (कर) से बजाये जाने के कारण ‘करताल’ तथा लकड़ी की बनी होने के कारण इस ‘कठताल’ कहते हैं।
❖राजस्थान के लोक कलाकार इन्हें इकतारा व तंदूरा की संगत में बजाते हैं।
❖बाड़मेर क्षेत्र में इसका वादन गैर नृत्य में किया जाता है।
‘खड़ताल’ लोक वाद्य इससे भिन्न है।
3. रमझौल
❖लोक नर्त्तकों के पावों में बांधी जाने घुंघरुओं की चौड़ी पट्टी ‘रमझौल’ कहलाती है।
❖रमझौल की पट्टी पैर में पिण्डली तक बांधी जाती है।
❖राजस्थान में होली के अवसर पर होने वाले नृत्य, उत्सव तथा ‘गैर’ नृत्यों में इसका प्रयोग किया जाता है।
❖गोड़वाड़ क्षेत्र के लोक-नर्तक ‘समर नृत्य’ करते समय पावों में रमझौल तथा हाथों में तलवारे लेकर नाचते है। इसमें युद्धकला के भाव भी दिखाये जाते है।
❖मवेशियों के गले में बांधे जाने वाले रमझौल को ‘घूंघरमाल’ कहा जाता है।
4. लेजिम
❖‘लेजिम’ गरासिया जाति के लोगों का वाद्य है। इसका वादन वे नाच-गान के आयोजनों में करते है।
❖बांस की धनुषाकार बड़ी लकड़ी में लोहे की जंजीर बाँध दी जाती है और उसमें पीतल की छोटी-छोटी गोल-गोल पत्तियां लगा दी जाती है।
5. टंकोरा/टिकोरा (घंटा/घड़ियाल)
❖यह वाद्य कांसे, तांबे, जस्ते के मिश्रण से बनी एक मोटी गोल पट्टिका होता है। इसे आगे-पीछे हिलाते हुए, लकड़ी के डंडे से बजाया जाता हैं। इसके अन्य नाम घंटा, घड़ियाल भी है।
❖हर घण्टे बजने व समयसूचक होने से ‘घंटा-घड़ियाल’ तथा टन-टन आवाज में बजने से ‘टंकोरा कहलाया।
6. वीर घंटा
❖घंटा धातु से बना भाटी व दलदार घंटा। घंटे के मध्य भाग में एक छोटी सी घण्टी लगी रहती है। इसे हाथ या रस्सी से हिलाने पर घण्टे के भीतरी भाग पर आघात करने से ध्वनि निकलती है।
मुख्यतः मंदिरों में बजने वाला वाद्य।
7. श्रीमण्डल
❖राजस्थान के लोक वाद्यों में यह बहुत पुराना वाद्य माना जाता है।
❖खड़े झाड़नुमा इस वाद्य में चांद की तरह के गोल-गोल छोटे-बड़े टंकोरे लटकते हुए लगे रहते है।
❖इसका वादन मुख्यतः वैवाहिक अवसरों पर बारात के समय किया जाता है।
❖हाथों में दो पतली डंडी लेकर बजाये जाने वाला यह वाद्य ‘तरंग वाद्य’ है।
8. झालर
❖प्रदेश के देव मंदिरों में प्रात-सायं आरती के समय बजाई जाने वाली ‘झालर’ खड़ी किनारों की छोटी थाली होती है। इसका निर्माण ताँबा, पीतल, जस्ते इत्यादि मिश्र धातुओं की मोटी परत से किया जाता है।
9. मंजीरा
❖यह गोलाकार कटोरीनुमा युग्म वाद्य है, जो पीतल और काँसे की मिश्रित धातु का बना होता है।
❖दोनों मंजीरो को आपस में आघातित करके ध्वनि उत्पन्न की जाती है।
❖‘तेरहताली’ नृत्य (कामड़ जाति की महिलाओं द्वारा) मंजीरों की सहायता से ही किया जाता है।
❖गायन, वादन तथा नृत्य में लय के भिन्न-भिन्न प्रकारों की संगति के लिए इस वाद्य का प्रयोग होता है।
10. झाँझ
❖यह वाद्य मिश्रधातु की मोटी परत से बनाई जाती है, इसमें दो बड़े चक्राकार चपटे टुकड़े होते हैं, जो मध्य भाग में थोड़ा उभरे हुए रहते है। ये आपस में टकराकर बजाये जाते हैं।
❖इसे मुख्यतयाः ताशे और बड़े ढोल के साथ बजाया जाता है।
झांझ के मध्य भाग में डोरी लगी होती है, जिसे बजाते समय मुट्ठी में पकड़ा जाता है। इसका प्राचीन नाम कांस्यताल है।
11. चिमटा (चींपीया)
❖इस प्रदेश के जन सामान्य द्वारा भजन कीर्तन तथा भक्ति संगीत में बजाया जाने वाला ‘चिमटा’ वाद्य रसोईघर के चिमटे से आकार-प्रकार में बड़ा होता है।
❖एक बड़ी-लम्बी पत्ती को दोहरा मोड़कर, पीछे के भाग में कड़ा डालने की गोलाई रखते हुए इसे बनाया जाता है। इसकी पत्ती सामान्य चिमटे की पत्ती से कुछ मोटी होती है।
इन पत्तियों के बाहरी तरफ, करीब दो-दो इंच के फासले से कीलें लगाकर उनमें खंजरी जैसी झांझें डाली जाती हैं। इनकी संख्या प्रायः छः-छः होती हैं।
इसको बजाने के लिये एक हाथ में कड़े वाले भाग को पकड़ा जाता है तथा दूसरे हाथ के अंगूठे तथा अंगुलियों से दोनों परों को परस्पर टकराया जाता है। इससे छम-छम की आवाज होती रहती है। प्रायः ढोलक व मंजीरा की संगत में बजाया जाता है। फेरी वाले साधुलोग भी इसे बजाते हुए भजन-कीर्त्तन करते भिक्षाटन करते हैं।
इसे ‘डूचको’ भी कहा जाता है।
12. हांकल
इस वाद्य का प्रयोग, आदिवासियों के धर्मगुरु भोपा लोगों द्वारा उनके देवी-देवता या इष्ट को प्रसन्न करने अथवा उनके प्रकोप को शान्त करने बाबत, की जाने वाली उपासना के समय किया जाता है। यह उपासना एक प्रकार से तांत्रिक क्रिया जैसी होती है। ‘हांकल’ शब्द सांकल का ही देशज नाम है।
यह, पांच छः लोहे की (कुछ लंबी) शृंखलाओं का झूमका (झुण्ड-समूह) होता है, ये सांकलें लोहे की एक मोटी कड़ी में पोई जाकर लटकती रहती है। सांकलों के आगे तीखी-तीखी पत्तियां भी लगी रहती हैं। मोटी कड़ी के ऊपर एक दस्तानुमा (हैण्डल) लंबी कड़ी लगाई जाती है जिसे हाथ में पकड़कर इसका प्रयोग किया जाता है।
उपासना के समय भोपे लोग इसे हाथ में पकड़कर इष्ट के आगे खड़े हो जाते हैं फिर सांकलों और पत्तियों को अपनी गर्दन के पीछे जोर-जोर से मारते हैं। उस समय भोपों का उत्साह अत्यन्त उग्र एवं प्रचण्ड हो जाता है। पत्तियों और सांकलों के निरन्तर जोर-जोर के आघात से बड़ी कर्कश ध्वनि उत्पन्न होती है। इससे वातावरण में एक भयावह संगीत का सृजन होता रहता है।
13. डांडिया
राजस्थान के लोकनृत्य ‘घूमर’, गैर, गीदड़ तथा गुजरात के ‘गरबा’ नृत्य करते समय बजायी जाने वाली दो छोटी-पतली लकड़ियां काम आती है। उसे ही डांडिया के नाम से जाना जाता है।
‘डांडिया’ नामक इस लौकिक युग्म साज की डंडियां प्रातः बांस, बबूल, कैर अथवा खेर की सूखी पतली लकड़ियां होती है।
होली त्यौहार तथा नवरात्रि के दिनों में ‘डंडिया गैर’ का आयोजन किया जाता है।
14. खड़ताल
‘खड़ताल’ जोधपुर के पश्चिम में बाड़मेर-जैसलमेर के लंगा – मांगणियारों (वंशानुगत लोक कलाकार) के प्रमुख वाद्यों में से एक वाद्य है। रोहिड़ा या खैर की लकड़ी की, चार अंगुल चौड़ी व दस अंगुल लंबी-चिकनी चार पट्टियों के रूप में यह वाद्य होता है।
इसे बजाने के लिये वादक अपने प्रत्येक हाथ में दो-दो पट्टियां, अंगुठे और अंगुलियों में, पकड़ लेता है तथा इनको परस्पर आघातित कर कलई से संचालित करते हुए ध्वनि निकालता है। यह लयात्मक घनवाद्य है। कुशल वादक इसके वादन में तबले के बोल भी निकाल सकता है।
खड़ताल का जादूगर – सदीक खाँ ‘मिरासी’ (झांफली, बाड़मेर)
15. घड़ा (मटका/घट)
घरों में समान्यतया पानी भरकर रखने का मिट्टी का घड़ा या छोटे मुंह का मटका अपने आप में एक प्रभावशाली प्राकृतिक वाद्य माना जाता है।
इसे गोद में रखकर एक हाथ की अंगुलियों से तबले की तरह तथा दूसरे हाथ की हल्की थाप से लयात्मक ध्वनि तथा गातें बजाई जाती है। कभी-कभी अंगुलियों में धातु की अंगुठियां भी पहनी जाती है।
इसका मुख बहुत संकुचित होने के कारण अन्दर हवा का दबाव रहता है, इसलिये इसे बजाते समय बीच-बीच में हथेली से इसके मुंह पर बड़ी अद्भुत रीति से हल्का आघात किया जाता है जिससे ‘भम्-भम्’ की आकर्षक ध्वनि उत्पन्न होती है।
अवनद्ध वाद्य
ऐसे वाद्यों को ‘चमड़े’ से मढ़कर बनाया जाता है, जिसे हाथ या डण्डे की सहायता से बजाया जाता है।
प्रमुख अवनद्ध वाद्य –
1. चंग
यह राजस्थान का अत्यन्त लोकप्रिय वाद्य है। फाल्गुन का महीना शुरू होते ही पूरे प्रदेश में मस्ती भरे गीतों के साथ इसे बजाया जाता है।
लकड़ी का एक घेरा जिसे बकरे या भेड़ की खाल से मढ़ा जाता है इसे एक पतली डण्डी से बजाया जाता है।
होली के दिनों में ‘चंग’ के साथ नाच गान करने वाली मंडलियों को ‘गैर’ कहा जाता है।
होली के दिनों में गाये जाने वाले ‘फाग’ के साथ इस वाद्य को बजाया जाता है।
2. घेरा
‘घेरा’ वाद्य इस प्रदेश के लोक संगीत के चंग, डफ आदि वाद्यों की श्रेणी का अन्य वाद्य है। इसका घेरा (वृत्त) चंग से बड़ा तथा ‘अष्ट कोणी वृत्ताकार’ होता है। यह लकड़ी की, आठ नौ इंच लम्बी तथा पांच छः इंच चौड़ी पट्टियों को परस्पर जोड़कर बनाया जाता है।
यह मेवाड़ क्षेत्र के मुसलमानों का प्रमुख वाद्य है।
3. ढफ/ढप/डफ
यह वाद्य चंग से मिलती जुलती आकृति का, पर उससे बड़ा होता है। इसका घेरा लोहे की परत से बनाया जाता है। घेरे का व्यास करीब तीन फुट या इससे अधिक होता है।
चंग की तरह इसके घेरे का एक मुख बकरे की खाल से मढ़ा जाता है। लेकिन चमड़े को घेरे पर चिपकाया नहीं जाता वरन् चमड़े की बद्दी (पतली डोरी) से घेरे के चारों ओर कसकर बांध दिया जाता है।
कोटा झालावाड़ क्षेत्र के लोग इसे बजाकर, होली के दिनों में इसकी आवाज के साथ नाच गान करते हैं।
4. खंजरी
राजस्थान में खंजरी वाद्य का प्रचलन काल-बेलियों व जोगियों में अधिक हैं। लेकिन भजन-कीर्तन के आयोजनों में भी इसका प्रचलन आम तौर पर देखा जाता है।
चंग या डफ की तरह इसका एक मुख चंदन-गौह या बकरी की खाल से मढ़ दिया जाता है। घेरे की गोलाई में लंबे-लंबे छेद कर उनमें, छोटी-छोटी, दो-दो, तीन-तीन, झांझें (पीतल की चकरियां) कील लगाकर पिरो दी जाती है। हाथ की थाप से वादन करते समय इन झांझों से छन्-छन् की मधुर झंकार होती रहती है।
ट्रेन में अक्सर कलाकार को गीत के साथ ‘खंजरी’ बजाते देखा होगा।
खाल से मंडित होने के कारण यह अवनद्ध वाद्य माना जाता है तथा झाझें या घुंघरु संलग्न कर देने के कारण इसमें घनवाद्य के लक्षण भी सम्मिलित हो गये हैं।
5. नगाड़ा
समान आकार के लोहे के दो कटोरीनुमा पात्रों का वाद्य, जिनके ऊपरी भाग पर भैंसे की खाल का मढ़ाव होता है।
प्रसिद्ध नगाड़ा वादक रामाकिशन सोलंकी (पुष्कर)।
दो डंडों से आघातित करने पर वादन होता है।
वर्तमान काल में मंदिरों में आरती के समय एवं प्राचीन काल में राजा की सवारी के आगे बजाने का प्रचलन रहा है।
बाड़मेर व शेखावाटी क्षेत्र में गैर तथा गींदड़ लोकनृत्यों के साथ भी बजाया जाता है।
पुष्कर के रामाकिशन सोलंकी प्रसिद्ध नगाड़ा वादक थे।
6. टामक/बंब/बम
टामक वाद्य इस प्रदेश के लोक वाद्यों में सबसे बड़ा वाद्य है। यह अवनद्ध श्रेणी का भांड वाद्य है (Kettle Drum) जो एक बहुत बड़ा नगाड़ा होता है। इसका ढांचा लोहे की मोटी परतों को जोड़कर, बड़ी कड़ाही की तरह बनाया जाता है। इसके मुख का व्यास करीब चार फुट तथा गहराई भी चार फुट के करीब होती है। इसके पैंदे वाले भाग की गोलाई क्रमशः छोटी होने के कारण यह खड़े अण्डे की शक्ल में लगता है।
इसके मुख पर, भैंस के मोटे चमड़े की (पतर) पुड़ी, गजरा (कुण्डल) बनाकर नगाड़े की तरह मढ़ी जाती है। पुड़ी को चमड़े की बद्धी (डोरी) से चारों ओर खींच कर बांधा जाता है।
ताल वाद्यों में यह सबसे बड़ा वाद्य है। इसे तिपाही पर रखकर दो डंडों से आघातित कर बजाया जाता है। प्राचीन काल में इस वाद्य को दुर्ग की प्राचीर आदि पर रखकर या युद्ध स्थल में बजाया जाता था।
वर्तमान में इसका वादन, अलवर, भरतपुर, सवाई-माधोपुर क्षेत्र में, बसंत पंचमी एवं होली के उत्सवों पर गूर्जर, जाट, अहीर आदि, पुरुष-महिलाओं के नृत्य-गायन के साथ किया जाता है। ढोलक, मंजीरा, चिमटा, झील आदि इसकी संगत में बजाये जाते हैं।
इसे बंब और धौंसा भी कहा जाता है।
7. नौबत/नौपत
एक छोटी नगाड़ी और दूसरा बड़ा नगाड़ा जो प्रायः शहनाई के साथ बजाया जाता है, इस युग्म वाद्य को नौबत या नौपत कहा जाता है।
बड़े नगाड़े को नर तथा छोटे को मादा कहा जाता है।
मादा पर मढ़ी जाने वाली खाल की झिल्ली पतली होती है। इस कारण इसका स्वर ऊंचा तथा आवाज पतली होती है।
नर पर मढ़े जाने वाली खाल की झिल्ली मोटी होती है। इस कारण इसका स्वर नीचा तथा आवाज गंभीर होती है।
इसका वादन लकड़ी की नोकदार दो डंडियो से किया जाता है।
8. कुंडी
चाक पर बनी मिट्टी की सामान्य कुंडी (कुंडा का छोटा रूप) के ऊपरी भाग पर बकरे की खाल का मढ़ाव होता है। वादक इसे दो छोटी डंडियों के माध्यम से बजाते हैं। मुख्यतया आदिवासी नृत्यों के साथ बजायी जाती है। राजस्थान के आदिवासी बाहुल्य (खासतौर से मेवाड़ व सिरोही) क्षेत्र में प्रयुक्त।
9. तासा
इस वाद्य की देह (Body) परातनुमा कुंडी जैसी, तांबे, लोहे या मिट्टी की बनी होती है। इसके मुख का व्यास करीब डेढ़ फुट का होता है। कुंडी की गहराई लगभग छः सात इंच होती है। यह Kettle Drum है।
इसके मुख पर बकरे की खाल की पुड़ी मढ़ी जाती है। मढ़ते समय मुख के चारों ओर गजरा बनाया जाता है। पुड़ी को कसावट के लिये उसमें छेद कर डोरी को कसकर, बॉडी के चारों ओर जाली की तरह गूंथकर बांधा जाता है।
इसका वादन गले में लटकाकर बांस की दो पतली खपचियों से किया जाता है, जिससे ‘तड़-तड़ा-तड़’ की ध्वनि निकलती है। कुशल वादक इसमें कई प्रकार की लयकारियां भी निकालते हैं।
मुसलमान लोग इसे अधिकतर ताजियों के समय बड़े-बड़े ढोल और बड़े-बड़े झांझ के साथ संगत में बजाते हैं। विवाह आदि मांगलिक अवसरों पर भी इसे बाजे के रूप में बजाया जाता है।
10. ढोलक
इस वाद्य को आम, शीशम, सागवान, नीम, जामुन आदि की लकड़ी से बनाया जाता है।
इस वाद्य के दोनों मुख पर बकरे की खाल मढ़ी रहती है। यह खाल डोरियों द्वारा कसी जाती है। डोरियों में छल्ले रहते है, जो खाल और डोरियों को कसते हैं।
इसे बजाते समय दोनों हाथों का प्रयोग किया जाता है।
11. पाबूजी के माटे
दही बिलौने के मथनी जैसा बड़े मुख वाला मिट्टी का बड़ा मटका या पात्र जिसे ‘भांड-वाद्य’ भी कहा जाता है।
यह युग्म वाद्य है, जिसके दोनों पात्र बराबर होते है।
पश्चिमोत्तर राजस्थान के जोधपुर, नागौर, बीकानेर क्षेत्र के रेबारी, थोरी, नायक (भील) जाति के लोग इस वाद्य को बजाकार लोक देवताओं (पाबूजी आदि) के ‘पवाड़े’ गाते है।
इन दोनों वाद्यों को अलग-अलग दो व्यक्ति बजाते है।
12. ढोल
यह एक बड़े बेलन के आकार का वाद्य है, जिसे लोहे की सीधी और चपटी परतों को आपस में जोड़कर बजाया जाता है।
इस वाद्य पर बकरे की खाल मढ़ी रहती है। इसके साथ थाली बजाई जाती है।
यह अवनद्ध वाद्यों में सर्वाधिक व्यापकता वाला वाद्य है।
इसे बजाने हेतु हाथ तथा लकड़ी के डंडे का प्रयोग किया जाता है।
मारवाड़ में मांगलिक अवसरों पर इसे बजाया जाता है।
जालोर का ढोल नृत्य प्रसिद्ध है।
13. डेरू
डमरू से कुछ बड़ा पर ढोल से छोटा यह अवनद्ध वाद्य समुह का एक विशेष वाद्य है।
इसकी आकृति डमरू जैसी लगती है, इसके दोनों सिरे के मुँह चमड़े से मढ़े जाते हैं।
इसे बजाने हेतु पतली छोटी लकड़ी, जिसका एक सिरा कुछ मुड़ा हो उसे काम में लिया जाता है।
माताजी, गोगाजी एवं भैरूजी के भोपे, इन लोक देवताओं के भजन, पवाड़े आदि गाते समय इस वाद्य को बजाते है।
14. भीलों की मादल
राजस्थान के लोक वाद्यों में अवनद्ध-वाद्य समूह में एक नाम हैं – ‘मादल’। इस वाद्य के दो रूपों का वर्णन किया गया है। (1) ‘भीलों की मादल’ (2) रावलों की मालद’। वाद्य एक ही है लेकिन बनावट में किंचित अन्तर होने के कारण दोनों को अलग-अलग मान कर अलग पहचान तथा अलग नाम दिये गये हैं। ऐसी स्थिति कतिपय अन्य वाद्यों में भी पाई जाती है। यथा-‘चंग’ व ‘ढफ’, ‘नगाड़ा’ तथा ‘बंब’ इत्यादि।
यह मुख्यतः आदिवासियों का वाद्य है। इसलिये इसके नाम आदिवासी जातियों के नामों से वर्गीकृत हैं। यह सीधी खोल वाले ढोल वाद्यों के अन्तर्गत आता है। ‘भीलों की मादल’ का खोल मिट्टी का बना होता है, जो कुम्हारों द्वारा कुशलता से बनाया जाता है। खोल की बनावट बेलनाकार सीधी, छोटे, ढोल की तरह होती है। कुछ खोल ढाल-उतार, एक तरफ से कुछ चौड़े तथा दूसरी तरफ से कुछ संकरे मुंह वाले भी होते हैं।
15. रावलों की मादल
इस प्रदेश के चारणों के याचक रावल लोगों का प्रमुख वाद्य।
इस ‘मादल’ का खोल गोपुच्छाकृत काठ से बनाया जाता है। यह ढोलकनुमा खोल वाला वाद्य है, पर इसका खोल ढोलक से बड़ा होता है। इसका एक मुख चौड़ा तथा दूसरा क्रमशः संकरा होता है। दोनों मुख चमड़े की पुड़ियों से मंढे जाते हैं। पुड़ियों की बनावट तबले की पुड़ियों जैसी दोहरी परत की होती है।
रावल लोग रम्मत (लोक-नाट्य) व गायन के समय इसका वादन करते हैं। रावलों का प्रमुख वाद्य होने के कारण इसे ‘रावलों की मादल’ कहा जाता है।
16. वृन्द वाद्य – गड़गड़ाटी
यह एक वृन्द वाद्य (Orchestra) है, जिसमें मिट्टी के खोल वाली छोटी ढोलक, मिट्टी का कटोरा तथा कांसी की थाली तीन वाद्य होते हैं।
इसकी ढोलक की खोल मिट्टी की बनी होती है। खोल की लम्बाई लगभग एक से सवा फुट की तथा गोलाई का व्यास करीब 10 इंच का होता है। इसके दोनों मुख चमड़े की झिल्लियों से मंढ दिये जाते हैं। पुड़ियों के गजरे नहीं बनाये जाते वरन् डोर को पुड़ियों में छेद कर कसा जाता है। छेद दूर-दूर होने से डोरी कुछ छितराई हुई लगती हे। डोरी में कड़ियां या गट्टे नहीं डाले जाते।
दूसरा वाद्य मिट्टी का कटोरा होता है जिसके मुख पर चमड़े की झिल्ली मढ़ी जाती है। तीसरा वाद्य कांसी की थाली होती है। तीनों एक साथ बजाये जाते हैं जिसे ‘गड़गड़ाटी’ कहते हैं।
यह हाड़ौती अंचल में प्रचलित ताल वाद्य (वृन्द वाद्य) है। इसका वादन प्रायः मांगलिक अवसरों पर किया जाता है।
यद्यपि थाली घनवाद्य है किन्तु अन्य दोनों वाद्य अवनद्ध वाद्य होने के कारण इस वाद्य को अनवद्ध श्रेणी में माना गया है।
सुषिर (फूंक) वाद्य
ये वाद्य वादक द्वारा मुँह से फूंक मारकर बजाये जाते है।
प्रमुख सुषिर वाद्य –
1. बाँसुरी (बंसरी, बांसरी बांसुली, बंसी)
यह वाद्य बांस की नलिका से निर्मित होने के कारण इस वाद्य का नाम बांसुरी या बंसरी पड़ा।
शास्त्रीय संगीत के वर्गीकृत वाद्यों में इसका महत्वपूर्ण स्थान है।
मुँह से बजाये जाने वाले भाग को तिरछी गोलाई में चंचुनुमा काटकर उसमें गुटका लगाकर मुँह को संकरा कर दिया जाता है।
इस वाद्य पर पाँच से आठ तक छेद होते है।
राजस्थान में पाँच छेद वाली बाँसुरी को ‘पावला’ कहा जाता है। छः छेद वाली ‘रूला’ कहलाती है।
यह अत्यन्त प्राचीन वाद्य है। वैदिक साहित्य, ऋग्वेद उपनिषद, पुराणा आदि में इसका संदर्भ निरन्तर मिलता है।
नाद उत्पन्न करने वाली होने के कारण इसे ‘नादी’ कहा गया है तथा बांस के कारण इसे ‘वंश’ व वेणु कहा गया है।
2. सुरनई
राजस्थान के लोक वाद्यों में कई रूपों में प्रचलित वाद्य ‘सुरनई’, शहनाई से मिलता-जुलता दो रीड का वाद्य है। इसका निर्माण शीशम, सागवान या टाली की लकड़ी की नलिका बनाकर किया जाता है। इसमें खजूर या ताड़ वृक्ष की पत्ती की रीड लगती है। इसका अगला भाग फाबेदार होने से देखने में यह बड़ी चिलम जैसी लगती है। इसकी लम्बाई करीब सवा फुट होती है। इसके पीछे वाले संकरे भाग में एक नलिका लगाई जाती है। रीड को इसी नलिका के साथ मजबूती से बांधा जाता है। रीड को होठों में दबाकर लगातार फूंकते हुए इसे बजाया जाता है। इसलिये इसे नकसासी वाद्य माना जाता है। इसके ऊपरी भाग में 6 छिद्र होते हैं और इसे शहनाई की तरह बजाया जाता है। बजाते समय रीड को पानी से थोड़ा-थोड़ा गीला किया जाता है।
इसका वादन पूरे राजस्थान में प्रचलित है, लेकिन मुख्य रूप से इसे जोगी, भील, ढोली तथा जैसलमेर क्षेत्र के लंगा लोग बजाते हैं। इस वाद्य को विवाहादि प्रायः मांगलिक अवसरों पर नगाड़े व कमायचे की संगत में बजाया जाता है। इसे लक्का, नफीरी व टोटो नाम से भी इंगित किया जाता है।
3. सतारा
राजस्थान के लोक संगीत वाद्यों में, ‘सतारा’ सुषिर या फूंक वाद्य, दो बांसुरियों वाला युग्म साज है। यह वाद्य ‘अलगोजा’ से मिलता-जुलता वाद्य है, परन्तु उससे भिन्न है। इसकी बांसुरियां बांस की नहीं होती वरन् केर की लकड़ी से बनाई जाती है।
बांसुरियां अगर बराबर लंबाई में रखी जाती है तो ‘पावाजोड़ी’ कहलाती है। छोटी बड़ी होने पर ‘डोढा-जोड़ी, कहा जाता है। इनमें प्रत्येक में छः छः छेद होते हैं। एक बांसुरी आधार स्वर तथा केवल श्रुति के लिये तथा दूसरी को स्वरात्मक रचना में बजाया जाता है। दोनों बांसुरियां साथ-साथ बजती हैं।
4. नड़
राजस्थान के जैसलमेर तथा रेगिस्तान क्षेत्र के चरवाहों, भोपों का प्रमुख वाद्य ‘नड़’ (नढ़/कानी) कगोर की लकड़ी से बनता है।
इस वाद्य की विशेषता यह है कि इसे बजाते समय वादक-गले से आवाज भी निकालते है। बजाते समय मुँह पर टेढ़ा रखा जाता है। फूँक के नियन्त्रण से स्वरों का उतार-चढ़ाव होता है।
प्रमुख कलाकार – कर्णा भील (जैसलमेर)
5. अलगोजा
यह बांस की नली का बना हुआ वाद्य है। नली को छीलकर उस पर लकड़ी का एक गट्टा चिपका दिया जाता है जिससे आसानी से आवाज निकलती है।
यह युग्म साज है, प्रायः दो अलगोजे एक साथ मुँह में रखकर बजाये जाते है।
यह आदिवासी भील, कालबेलियाँ आदि जातियों का प्रिय वाद्य है।
6. मुरला/मुरली
राजस्थान के लोक-संगीत वाद्यों में ‘मुरला’ (मुरली) वाद्य संपेरों की पूंगी का विकसित रूप है। इसके तीन भेद होते हैं- आगौर, मानसुरी एवं टांकी।
एक विशेष प्रकार के लंबे नलीदार मुख वाले कद्दू की तुंबी में, नीचे की तरफ, लकड़ी की दो नलिकाएं (पूंगी की तरह) फंसा कर मोम से चिपका दी जाती हैं। इन नलिकाओं में, कगोर वृक्ष की पतली लकड़ी का बना, एक-एक सरकंडा लगाया जाता है। एक नलिका से केवल ध्वनि निकलती है जबकि दूसरी नलिका से स्वर समूह बजाये जाते हैं। इसमें तीन छिद्र होते हैं। स्वरों का मिलान मोम की सहायता से किया जाता है। इसमें आलापचारी की संभावना भी रहती है।
वादन के समय इसे लगातार फूंका जाता है। इस प्रक्रिया को ‘नकसासी’ कहा जाता है। इस वाद्य से अधिकतर लोक धुनें बजाई जाती है।
यह वाद्य संपेरों की पुंगी से धीरे-धीरे विकसित हुआ है। साधारणतया इसे कालबेलिया तथा जोगी लोग बजाते हैं। लेकिन लंगा, मांगणियार एवं अन्य पेशेवर लोक कलाकारों का भी यह प्रमुख वाद्य है।
7. पूंगी/बीण/बीन
मोटे पेट की तूँबी के निचले गोलाकार भाग पर दो नलियाँ जिनमें दो रीड़ लगी होती है। इसे निरंतर सांस प्रक्रिया द्वारा बजाया जाता है। कालबेलियों में प्रचलित वाद्य।
8. बांकिया
पीतल का वक्राकार मोटे फाबे वाला सुषिर वाद्य, जो होठों से सटाकर फूँक द्वारा वादित होता है।
दो या तीन स्वरों तक उपयोग संभव।
राजस्थान में बहुप्रचलित वाद्य जो सरगरा जाति द्वारा वैवाहिक एवं मांगलिक अवसर पर बजाया जाता है।
9. नागफणी
सर्पाकार पीतल का सुषिर वाद्य, जो साधु-संन्यासियों का धार्मिक वाद्य है।
10. करणा
राजस्थान का लोकवाद्य ‘करणा’ तुरही से मिलता-जुलता वाद्य है, किन्तु इसकी लंबाई आठ से दस फुट तक की होती है। यह वाद्य पीतल की चद्दर से बनता है। इसके तीन-चार भाग होते हैं। जिनको अलग-अलग करके जोड़ा व समेटा जा सकता है। देखने में यह चिलम की शक्ल का लगता है। इसके संकरे भाग में सहनाई की तरह की रीड लगी होती है जिसे होंठो में दबाकर फूंक से बजाया जाता है।
सुषिर वाद्यों में सबसे लम्बा वाद्य।
11. तुरही
इस प्रदेश के बड़े मंदिरों तथा दुर्गों में प्रचलित ‘तुरही’ वाद्य बिगुल की श्रेणी का वाद्य है। इसका निर्माण पीतल की चद्दर को नलिकानुमा (Pipe) मोड़कर किया जाता है। अगला मुख चौड़ा तथा फूलनुमा होता है। पिछला सिरा बहुत संकरा होता है, जिसकी आकृति डब्बीनुमा, नोकदार होती है। अतः इसकी आकृति हाथ से पीने वाली, ‘चिलम’ की तरह लगती है।
12. सिंगा
जोगी संन्यासियों द्वारा वादित सींग के आकार का सुषिर वाद्य।
13. मोरचंग/मुखचंग/मुहचंग
राजस्थान के लंगा एवं आदिवासी लोगों में प्रचलित यह वाद्य स्वरूप में बहुत छोटा, बनावट में सरल है, लेकिन राजस्थान सहित प्रायः पूरे भारत की लोक संस्कृति में व्यापक रूप से प्रचलित एवं लोकप्रिय है।
यह वाद्य लोहे की छोटी कड़ी से बनाया जाता है जिसका व्यास करीब चार-पांच इंच का होता है। छल्ले का एक तरफ का मुख खुला रखकर उसके सिरे ऊपर की तरफ मोड़ दिये जाते हैं। खुले मुख में पक्के लोहे की बनी, लटकती हुई, जिभी (जिह्वा) लगाई जाती है, जो गोलाई के आर-पार होते हुए ऊपर से बिच्छु के डंक की तरह मुड़ी रहती है।
इसका वादन दांतों के बीच दबाकर मुख रंध्र से फूंक देकर किया जाता है। बजाते समय इसकी जीभी पर तर्जनी तथा अंगूठे से हल्के आघात कर लयात्मक ध्वनियों व स्वरों का सृजन किया जाता है।
14. मशक
राजस्थान के लोक वाद्यों में मशक का अपना अलग स्थान है। यह वाद्य बकरी की पूरी खाल से बोरे या गुब्बारे की तरह बनता है। बकरी की पूरी खाल को बिना चीरे खाली कर लिया जाता है। इसको साफ करके उलट कर रंग लिया जाता है। आगे के पैरों के छेद खुले रखे जाते हैं। शेष खुले भागों को डोरों से बांध कर मोम से बंद कर, एयर-टाइट कर दिया जाता है।
इसे कांख में दबाकर बजाया जाता है। इसमें निपल वाले भाग से, मुंह से हवा भरी जाती है तथा नीचे लगी नली से स्वर ध्वनि निकाली जाती है।
तत् (तार) वाद्य
जिन वाद्य यन्त्रों में तार लगे होते है उन्हे तत् वाद्य कहा जाता है।
तत् वाद्य को अंगुलियों से या मिजराफ से बजाया जाता है।
प्रमुख तत् वाद्य –
1. इकतारा (एक तारा)
एक तार का वाद्य ‘इकतारा’ जो एक छोटे से गोल तुम्बे में बाँस की डंडी फंसाकर बनाया जाता है।
तुम्बे के ऊपरी भाग को गोलाई में काटकर उस पर चमड़ा मढ़ दिया जाता है।
यह एक ही हाथ में पकड़कर बजाया जाने वाला वाद्य यंत्र है और दूसरे हाथ से करताल बजाई जाती है।
यह भक्ति संगीत का वाद्य माना जाता है। जिसे नाथ सम्प्रदाय के स्वामी एवं साधु-संत तथा कालबेलिया जाति के लोग बजाते है।
2. चौतारा (तंदूरा/वीणा)
यह तानपूरे के जैसा चार तारों वाला वाद्य यंत्र है, किन्तु इसके तारों को मिलाने का क्रम उल्टा होता है।
वादक इसे बायें हाथ में पकड़कर दाहिने हाथ की पहली उगली में मिजराफ पहनकर बजाता है।
यह वाद्य मुख्य रूप से कामड़ जाति द्वारा रामदेवजी के भजन गाते समय बजाया जाता है।
यह सम्पूर्ण रूप से रोहिड़ा की लकड़ी का बनता है। इसका तुम्बा भी लकड़ी का होता है।
3. सुरमण्डल
लकड़ी के तख्ते पर तार कसे हुए होते हैं तथा उन तारों को झंकृत करने पर सुर उत्पन्न होते हैं।
4. रावणहत्था
इस वाद्य का प्रयोग मुख्य रूप से पाबूजी के भोपे, पाबूजी की फड़ बाचते समय करते हैं।
यह कमान (गज) से बजने वाला वाद्य है जिसमें तार की तरह घोड़े की पूँछ के बाल लगे होते है।
रावणहत्था राजस्थान का अत्यन्त प्राचीन लोक वाद्य है।
इस वाद्य में मढ़े हुए भाग पर सुपारी की लकड़ी की घुड़च (घोड़ी) लगाई जाती है।
यह नारियल के कटोरे पर खाल मढ़कर बनाया जाता है।
5. जन्तर
दो गोल तुंबियो पर लगभग तीन चार फुट लम्बा बांस का दण्ड और चौदह पर्दे लगे होते है।
इसमें लोहे के चार तार लगे होते हैं।
इस वाद्य को गुर्जर जाति (बगड़ावत) के ‘भोपे’ बजाते है जो देवनारायण जी की फड़ के सामने खड़े होकर भजन व गीत गाते हुए बजाते है।
भोपे लोग इसे देवताओं का वाद्य मानते है।
‘सौ-मंतर तथा एक-जंतर’ की लोकोक्ति इसी संदर्भ में प्रचलित है।
6. भपंग
यह वाद्य लम्बी आल के तुम्बे का बना होता है, जिसकी लम्बाई डेढ़ बालिश्त और चौड़ाई दस अंगुल होती है। इसके पेंदे पर पतली खाल का मढ़ाव रहता है।
खाल के मध्य भाग में छेद करके तांत का तार निकाला जाता है। तांत के ऊपरी सिरे पर लकड़ी का गुटका लगा रहता है। तुम्बे को बायीं बगल में दबाकर तांत को बायें हाथ से तनाव देते हुए दाहिने हाथ की नखूनी से आघात करने पर लयात्मक ध्वनि निकलती है।
इस लोक वाद्य का खोल छोटी ढोलक के आधा भाग जितना तथा आदमी की बगल में दबाया जा सके वैसा होता है।
इस वाद्य का सर्वाधिक प्रचलन अलवर क्षेत्र में है।
भपंग का जादूगर – जहूर खां मेवाती (अलवर)
7. सांरगी
तत् वाद्यो में सांरगी श्रेष्ठ मानी जाती है।
इसका उपयोग शास्त्रीय संगीत में गायन की संगति के लिए मुख्य रूप से किया जाता है।
यह वाद्य तून, सागवान, कैर या रोहिड़े की लकड़ी से बनाया जाता है।
इसमें कुल 27 तार होते है तथा ऊपर की तांते बकरे की आन्तों से बनी होती है।
इसका वादन गज से किया जाता है जो घोड़े की पूँछ के बालों से निर्मित होता है।
कई तरह की सांरगियाँ प्रचलित है – सिन्धी सांरगी, गुजरातन सांरगी, डेढ़ पसली सारंगी, धानी सारंगी
सिन्धी सांरगी में तारों की संख्या अधिक होती है, यह सांरगी का उन्नत व विकसित रूप है।
गुजरातण सांरगी इसका छोटा रूप है, जिसमें तारों की संख्या केवल सात होती है।
सांरगी वादन मुख्य रूप से जैसलमेर और बाड़मेर के लंगा जाति के लोग करते हैं।
मरूक्षेत्र में जोगी लोग सांरगी के साथ गोपीचन्द, भरथरी सुल्तान निहालदे आदि के ख्याल गाते है।
मेवाड़ में गड़रियो के भाट भी सांरगी वादन में निपुण होते है।
8. कमायचा
यह सांरगी जैसा वाद्य है, जिसकी बनावट सांरगी से भिन्न है।
सांरगी की तबली लम्बी होती है किन्तु इसकी गोल व लगभग डेढ़ फुट चौड़ी होती है।
इसे बजाने हेतु गज का उपयोग किया जाता है तथा इसमें कुल 16 तार होते है।
इस वाद्य का प्रयोग मुस्लिम शेख करते है जिन्हे माँगणियार भी कहा जाता है।
प्रमुख कलाकार – कमल साकर खाँ
9. रवाज
यह वाद्य मुख्यतः चारणों के याचक रावल तथा भाटों का है।
सांरगी जाति का यह वाद्य नखवी (मिजराब) से बजाया जाता है।
इसके कुल तारों की संख्या चार है।
इसे रावल लोग अपने लोक नाट्य और ‘रम्मत’ (रावलो की रम्मत प्रसिद्ध) कार्यक्रमों में बजाते है।
10. रबाब
इस प्रदेश के लोक वाद्यों में ‘रबाब (अरबी लोक संगीत में भी प्रयुक्त)’ को एक ख्यातनामा लोक वाद्य के रूप में जाना जाता है।
यह भाट अथवा राव जाति का प्रमुख वाद्य है।
इस वाद्य का अधिक प्रचलन मेवाड़ में है।
इस वाद्य में कुल पांच तार होते है।
इसका वादन नखवी (जवा, मिजराब) से किया जाता है।
11. सुरिंदा
इस वाद्य का प्रयोग मारवाड़ के लोक कलाकार, विशेष कर लंगा जाति के लोगों द्वारा विभिन्न वाद्यों की संगत के लिये किया जाता है।
इस वाद्य का ढांचा रोहिड़ा की लकड़ी से बनाया जाता है।
इसमें कुल तीन तार होते है। इसे गज से बजाया जाता है जिस पर घुंघरू लगे रहते है।
राजस्थान संगीत नाटक अकादमी का प्रतीक चिह्न ‘सुरिंदा’ है।
12. दुकाको
यह भील जाति का वाद्य है, जो 6 या 8 इंच की पोली बेलनाकार लकड़ी से बना होता है।
इस वाद्य को बैठकर घुटनों के नीचे दबाया जाता है तथा तार को ऊपर की ओर कसकर पकड़ा जाता है और हाथ से इच्छानुसार लय, ताल में बजाया जाता है।
अन्य महत्वपूर्ण तथ्य
– रावलों की मांदल :- राजस्थान का एकमात्र लोकवाद्य, जिसकी डोटी में तनाव के लिए पखावज की तरह लकड़ी के गुटके डाले जाते हैं।
– रावणहत्था लोकवाद्य का निर्माण आधे कटे नारियल की कटोरी से होता है।
– सारंगी :- तत वाद्यों में सर्वश्रेष्ठ वाद्य। यह सागवान की लकड़ी की बनाई जाती है।
– इकतारा :- आदि वाद्य, जिसका सम्बन्ध नारद जी से जोड़ा गया है।
– रावणहत्था :- पाबूजी, डूंगजी – जंवाहरजी के भोपे बजाते है।
– रबाब लोकवाद्य :- अलवर व टोंक क्षेत्र में बजाया जाता है।
दुकाको भील समुदाय द्वारा मुख्यत: दीपावली पर बजाया जाता है।
– शहनाई वाद्य :- सुषिर वाद्यों में सर्वश्रेष्ठ, सुरीला व मांगलिक वाद्य है जो शीशम या सागवान की लकड़ी से बनाया जाता है। इसका आकार चिलम के समान होता है।
– मशक :- भेरुजी के भोपे इसे विशेषतया बजाते हैं। अलवर, सवाईमाधोपुर में विशेष प्रचलित है।
– भूंगल :- मेवाड़ के भवाइयों का वाद्य हैं। यह रण का वाद्य है, जो युद्ध शुरू करने से पूर्व बजाया जाता था।
– राणा कुम्भा वीणा बजाने में दक्ष था।
– घूमर नृत्य के समय ढोलक व मंजीरा वाद्य यंत्रों की आवश्यकता होती है।
– मारवाड़ के जोगियों द्वारा गोपीचन्द भर्तृहरि, निहालदे आदि के ख्याल गाते समय सारंगी वाद्य का प्रयोग किया जाता है।
– राजस्थान का राज्य वाद्य :- अलगोजा।
वादक
सम्बन्धित वाद्य
रामकिशन पुष्कर
:-
नगाड़े का जादूगर
चाँद मोहम्मद खाँ
:-
शहनाई वादक
पण्डित जसकरण गोस्वामी
:-
प्रसिद्ध सितार वादक
सुल्तान खाँ (सीकर)
:-
सारंगी का सुल्तान
पण्डित विश्वमोहन भट्ट
:-
प्रसिद्ध सितारवादक। भट्ट ने पश्चिमी गिटार में 14 तार जोड़कर इसे ‘मोहनवीणा’ का रूप दिया है जो वीणा, सरोद एवं सितार का सम्मिश्रण हैं।
किशन महाराज, उस्ताद जाकिर हुसैन
:-
तबला वादक
उस्ताद अमजद अली खाँ
:-
सरोद वादक
पण्डित शिवकुमार शर्मा
:-
संतूर वादक
पण्डित रामनारायण
:-
सारंगी वादक
हरिप्रसाद चौरसिया, स्व. श्री पन्नालाल घोष
:-
बाँसुरी वादक
उस्ताद बिस्मिल्लाह खाँ
:-
शहनाई वादक
करणा भील
:-
नड़ वादक
जहूर खाँ मेवाती
:-
भपंग वादक
लोक नृत्य
राजस्थान में जातीय नृत्य
जनजाति
नृत्य
भील
गैर, गवरी (राई), युद्ध नृत्य, द्विचक्री नृत्य।
गरासिया
वालर, लूर, कूद, मांदल, गौर, जवारा, मोरिया, रायण नृत्य।
कथौड़ी
मावलिया नृत्य, होली नृत्य।
मेव
रणबाजा नृत्य, रतवई नृत्य।
सहरिया
शिकारी नृत्य, लहंगी नृत्य।
मीणा
नेजा नृत्य, रसिया नृत्य।
गुजर
चरी नृत्य।
कंजर
चकरी नृत्य, धाकड़ नृत्य।
व्यावसायिक लोक नृत्य
(क) कच्ची घोड़ी नृत्य
(ख) भवाई नृत्य
(ग) तेरहताली नृत्य
(घ) कालबेलिया नृत्य – इंडोणी, बागड़िया, शंकरिया, पणिहारी
(ड) भोपों के नृत्य
(च) कठपुतली नृत्य
1. गैर
केवल पुरुषों द्वारा किया जाने वाला नृत्य।
गैर का मूल शब्द ‘घेर’ है जो घेरे से सम्बन्धित है।
मेवाड़ और बाड़मेर क्षेत्र में पुरूष लकड़ी की छड़ियां लेकर गोल घेरे में नृत्य करते हैं यही नृत्य गैर नृत्य के नाम से प्रसिद्ध है। इसे गैर घालना, गैर रमना, गैर खेलना तथा गैर नाचना जैसे विभिन्न नामों से भी जाना जाता है।
गैर करने वाले ‘गैरिये’ कहलाते है। यह नृत्य होली के दूसरे दिन से ही प्रारम्भ होकर करीब पन्द्रह दिन तक चलता रहता है।
इस नृत्य की संगति में प्रमुख वाद्य हैं – ढोल, बांकिया ऐर थाली।
गैर नृत्य में प्रयुक्त डंडे ‘खांडे’ नाम से जाने जाते है। इसके लिए पहले गूंदी वृक्ष से टहनियां काटकर लाते है और उनकी छाल हटाकर एक-एक इंच की दूरी रखते हुए उसी पर उस छाल को लपेट देते है। इसके बाद उस टहनी (डंडे) को अग्नि का स्पर्श देकर छाल हटा ली जाती है। हटाई हुई छाल की जगह अग्नि का असर नहीं रहने से वह भाग सफेद ही रहता है जबकि बिना छाल वाला भाग काला अथवा चौकलेटी रंग लिये उभर जाता है तब पूरा डंडा जेबरे की शक्ल सा बड़ा खूबसूरत लगने लगता है। ऐसी छड़ियों अथवा खांडों से जब गैर खेली जाती है तो उसका रंग ही कुछ और होता है।
यही गैर कहीं-कहीं पर खांडो की बजाय ‘तलवारों’ से भी खेली जाती है। इसमें नर्तक के एक हाथ में नंगी तलवार रहती है। जबकि दूसरे हाथ में उसकी म्यान शोभा पाती है।
नाथद्वारा में शीतला सप्तमी से पूरे माह तक गैर का आयोजन रहता है। यहाँ गैर की पहली प्रस्तुति श्रीनाथजी को समर्पित होती है।
इस नृत्य में भील संस्कृति की प्रधानता रही है।
इस नृत्य के साथ-साथ संगीत की लड़ियाँ गाई जाती है वे किसी वीरोचित गाथा या प्रेमाख्यान के खण्ड होती हैं।
वागड़ क्षेत्र में गैर में युवतियां भी सम्मिलित होती है।
सन् 1970 ई. में भीलवाड़ा में वहां के कलाप्रेमी निहाल अजमेरा ने गैर मेला प्रारम्भ किया जो अब लोक-मेले के रूप में प्रतिष्ठित हो चुका है।
गैरों के प्रकार –
मोटे रूप में चार प्रकार है –
(1) डांडिया गैर :-
इसमें नर्तक के हाथ में डाण्डिया होती है। बीकानेर के मरूनायक के मंदिर चौक में डांडिया की रंगत देखते ही बनती है। एक बार बीकानेर के महाराजा गंगासिंह यहाँ पर डाण्डियों के खेल देखने के लिए पधारे थे। कलकत्ता व मुम्बई को डाण्डियों के खेल की देन बीकानेर को है।
डांडिया गैर की पुर्णाहूति भैरूजी व सीवल माता गाकर होती है।
प्रथम दिन की शुरूआत गणेशजी व रासलीला के गायन से होती है।
(2) आंगिया गैर/आंगी-बांगी :-
चैत्र बदी तीज को आयोजित होने वाला गैर नृत्य।
मुख्य आयोजन स्थल – लाखेटा गाँव (बाड़मेर)।
नाचने वाले गैरियों के हाथों में एक-एक मीटर की डंडियाँ रहती है जो आजुबाजु के नृत्यकार की डंडियों से टकराकर खेली जाती हैं।
चंग, ढोल व थाली इसके प्रमुख वाद्य है।
(3) चंग गैर :-
शेखावाटी क्षेत्र में चंग हाथ में लेकर किया जाता है।
इस नृत्य का प्रारम्भ धमाल गीत से होता है।
यह पुरुष प्रधान नृत्य है।
शेखावाटी क्षेत्र में गीदड़ और चंग नृत्य में महिला पात्र (पुरुष बना हुआ) जो नृत्य करती है उसे महरी या गणगौर कहते है।
होली के दिनों में ब्रज प्रभावित क्षेत्रों में यह नृत्य ‘होरी नृत्य’ के नाम से भी जाना जाता है।
इस नृत्य में चंग या ढप के साथ बांसुरी भी बजाई जाती है।
(4) तलवार गैर (एक हाथ में तलवार एक हाथ में म्यान) :-
मेनार (मेणार) उदयपुर, नामक गांव की तलवारों की गैर प्रसिद्ध है।
मेनार में यह गैर वहाँ के प्रसिद्ध ऊंकारेश्वर चौरा (चौराहा) पर होती है। इसे ऊंकार महाराज का चौरा भी कहते हैं।
ढोल पर डंडे से प्रहार-‘डाका’ कहलाता था।
ढोल के तीन डाके के साथ सैनिकों के सिर को काटकर वहीं गाड़ दिया गया था। ये अमरसिंह के समय से जुड़ी घटनाएं हैं।
2. गींदड़ नृत्य
केवल पुरुषों द्वारा किया जाने वाला नृत्य।
चूरू-शेखावाटी क्षेत्र का सर्वाधिक लोकप्रिय नृत्य, जो होली के पंद्रह दिन पूर्व प्रारंभ होकर होली के साथ समाप्त हो जाता है।
प्रदर्शन हेतु खुले मैदान में एक ऊँचा मंडप बनाया जाता है। मंडप के बीच नगारे बजाने वाला नगारची बैठता है।
इस नृत्य में सर्वाधिक महत्वपूर्ण तो नगारची होता है जो नगारा वादन में बड़ा प्रवीण और पठु होता है।
इस नृत्य में पुरूष पात्र जो महिला का स्वांग धरते हैं, उन्हें ‘महरी/गणगौर’ कहते हैं।
गींदड़ नृत्य के संगत में ढोल, डफ, चंग गूँजने लगते है गाँवों में इन दिनों लड़के कहना आरम्भ कर देते है कि “लागे डांडा, घाले गींदड़”।
ताल, सुर और नृत्य इन तीनों का अनुपम योग इस नृत्य में देखने को मिलता है।
इस नृत्य में विभिन्न प्रकार के स्वांग करते है जैसे : साधु, शिकारी, सेठ-सेठानी, डाकिया, डाकन, दूल्हा, दुल्हन, सरदार, पठान, पादरी, बाजीगर, जोकर, शिव-पार्वती, पराक्रमी योद्धा, राम, कृष्ण, काली आदि।
यह एक प्रकार का स्वांग नृत्य है।
3. नेजा नृत्य
यह एक खेल नृत्य है जिसका प्रचलन डूंगरपुर-खैरवाड़ा के आदिवासी मीणों/भीलों में अधिक देखने को मिलता है।
यह नृत्य होली के बाद तीसरे दिन आयोजित होता है।
इस नृत्य में खुली जगह पर खम्भा रोप दिया जाता है तथा उसके उपरी सिरे पर नारियल बांध दिया जाता हैं।
खम्भे के चारों ओर स्त्रियाँ हाथों में बेंत लिए खड़ी रहती है जबकि पुरुष नारियल लेने का प्रयत्न करते हैं। इस अवसर पर जो ढोल बजाया जाता है उस पर ‘पगल्या लेना’ नामक थाप दी जाती है।
इस खेल नृत्य में महिलाओं की बहादुरी और शक्ति सम्पन्नता देखने को मिलती हैं।
4. झेला नृत्य
यह बारां के शाहबाद की सहरिया जनजाति का फसली नृत्य है।
आषाढ़ माह में जब फसल पक जाती है तब सहरिया पुरुष अपने खेतों पर मस्ती में झूमते हुए यह नृत्य करते है।
इस नृत्य के अवसर पर जो गीत गाये जाते हैं वे झेला नाम से जाने जाते हैं।
एक के बाद एक नृत्य करते हुए पुरुष-दर-पुरुष और महिला-दर-महिला जब गीत की पंक्तियां झेलते हैं तो वह गीत ही झेला के रूप में जाना जाता है। इसका अन्य नाम ‘लावणी’ भी सुनने को मिलता है।
5. बम/बमरसिया नृत्य
इस नृत्य के साथ-साथ ‘रसिया’ गाना गाने के कारण इसका नाम ‘बमरसिया’ नृत्य पड़ा।
मेवात प्रदेश (अलवर, भरतपुर) का ‘बम’ अपनी लोकरंगी छटा के लिए प्रसिद्ध है।
एक विशाल नगाड़े को ही ‘बम’ कहा जाता है। बम के साथ ढोल, मजीरा, थाली, चिमटा, गिलास वाद्यों की संगत लिये नर्तक निकल पड़ते हैं।
इस नृत्य की यह विशेषता है कि इसमें नर्तक, वादक तथा गायक तीनों ही तीन भागों में विभक्त होकर गति देते है।
यह नृत्य पुरुषों का हैं।
फाल्गुन माह में फसल कटने के पश्चात् ‘चौपाल’ पर किया जाने वाला नृत्य।
6. ईला-ईली नृत्य
लोकदेव ईला-ईली के सम्मुख किया जाने वाला नृत्य।
लोकजीवन में प्रचलित मान्यता के अनुसार राजपरिवार से जुड़े हुए ये ईलोजी (ईला) राजा हिरण्यकश्यप के बहनोई थे।
ईलोजी की शादी से पहले ही होलिका जल कर मर चुकी थी जिसके वियोग में तड़पते हुए ईलोजी ने होलिका की राख को अपने शरीर पर लगाई तथा आजीवन कुंवारे रहे इसलिए आज भी जिसका विवाह नहीं हो पाता है उसे ‘ईलोजी’ नाम ही थरप दिया जाता है।
ईलोजी द्वारा अपने शरीर पर राख लपेटने का वही प्रसंग ‘धूलंडी’ नाम से प्रारंभ हुआ। इसलिए प्रथम दिन होलिका दहन होता है और दूसरे दिन ‘धूलंडी’ को सारे लोग धूल-गुलाल उछालते मौज-मस्ती करते हैं।
मेवाड़ में इस त्यौहार को मनाने की परम्परा ज्यादा है।
पुत्र कामना के लिए स्त्रियों द्वारा किया जाने वाला नृत्य।
ईलाजी की सवारी बाड़मेर में निकलती है।
7. घूमर नृत्य
राजस्थान की आत्मा, रजवाड़ी नृत्य आदि उपनाम से प्रसिद्ध।
गणगौर व तीज पर किया जाने वाला अत्यन्त ही लोकप्रिय नृत्य।
इस नृत्य को राजस्थान का ‘राज्य नृत्य’ का गौरव प्राप्त है।
घूमर से तात्पर्य घूमने से है। यह नृत्य घूमते हुए गोलाई में महिलाओं द्वारा किया जाता है।
इस नृत्य में विशिष्ट प्रकार का घाघरा पहना जाता है। यह घाघरा कई कलियों का (108 कलियों तक) होता है। इसकी हर कली घेर लिए होती है।
प्रसिद्ध गीत : – ‘अस्सी कली रो घाघरो, कली-कली में घेर।’
घूमर में 8 मात्रा की ‘कहरवे’ (जमचे) की विशिष्ट चाल का प्रयोग किया जाता है इसे ‘सवाई’ कहते हैं।
‘मछली नृत्य’ इसी का एक रूप है।
इस नृत्य में नाचती हुई महिलाएँ अपने हाथों को उठाती हुई ऊंगलियों द्वारा नाना भाव व्यक्त करती है।
घूमर तीन प्रकार का होता है :-
(1) घूमर – साधारण स्त्रियों द्वारा किया जाने वाला नृत्य।
(2) लूर – गरासिया स्त्रियों द्वारा किया जाने वाला नृत्य।
(3) झूमरियों – छोटी बालिकाओं द्वारा किया जाने वाला नृत्य।
विवाह के पश्चात् जब दूल्हा पहली बार अपने ससुराल बुलाया जाता है तब भी उसके स्वागत एवं उल्लास में घूमर नाची जाती है।
विविध रंगों की लूगड़ी, ओढ़नी, कांचली तथा लहँगा घूमर की खास पोशाक है। सलमा, सितारा तथा सुनहरी-रुपहरी कौर, किनारी गोटा आदि से लूगड़ा लहँगा सजा होता है।
गरासियों के घूमर में निराली छटा देखने को मिलती है। वर्षा ऋतु की उमंग में गरासिया पुरुष-महिलाएँ अलग-अलग रूप में वृत्त बनाकर नाचते हैं। ‘कैरवा (कहरवा) ताल पर जो नृत्य किया जाता है उसके बोल हैं – कालो पाणी पड़वो राज झरसरियो।
राजस्थान के मुख्य नृत्य के रूप में जाना जाता है।
लंहगे के घेर को ‘घुम्म” कहा जाता है।
घूमर नृत्य में मुख्य वाद्य- ढोल, नगाड़ा, शहनाई आदि होते हैं।
मुख्य गीत –
म्हाने घूमर छै नखराली ऐ माय।
घूमर रमवा म्है जास्यां ओ रजरी ।।
8. कालबेलिया नृत्य
यह एक जाति विशेष का नृत्य है जो सांपो की दोस्त जाति है।
सांप पालक जाति होने के कारण ही इस जाति का नाम कालबेलिया पड़ा।
काल का अर्थ ही सांप से है और बेलिया से तात्पर्य दोस्त से है।
कालबेलिया महिलाएँ नृत्य करने में बड़ी प्रवीण होती है। ये अपने नृत्यों में बड़ी स्फूर्ति और लोच लिये जो अदाएँ प्रस्तुत करती है वे देखते ही बनती हैं। ऐसा लगता है जैसे उनके शरीर में हड्डियां ही नहीं है। इनके आकर्षक बोल और पूंगी की वादन शक्ति सबको अचंभित किये रहती है।
कालबेलियां नृत्य की विशेषता उनकी आकर्षक पोशाक भी है।
गुलाबो (जयपुर निवासी) इस नृत्य की प्रमुख नृत्यागंना है। जिसने कालबेलिया नृत्य को पूरे विश्व में प्रतिष्ठित किया।
कालबेलिया जाति के चार प्रमुख नृत्य :-
(1) शंकारिया नृत्य –
यह प्रेम कहानी पर आधारित एक युगल नृत्य है।
इसमें महिला और पुरुष दोनों भाग लेते है।
मुख्य वाद्य पूंगी, खंजरी, मोरचंग आदि।
(2) पणिहारी नृत्य –
यह महिला प्रधान नृत्य है जो राजस्थानी लोकगीत ‘पणिहारी’ पर किया जाता हैं।
यह नृत्य सिर पर 5-7 घड़े रखकर अंग संचालन करते हुए किया जाता है।
(3) इण्डोणी नृत्य –
यह कालबेलियों का प्रसिद्ध युगल नृत्य है।
(4) बागड़िया नृत्य –
यह नृत्य कालबेलिया स्त्रियों द्वारा भीख माँगते हुए किया जाता है।
9. घुड़ला नुत्य
यह मारवाड़ का प्रमुख लोक नृत्य है जो शीतला अष्टमी से लेकर गणगौर तक किया जाता है।
यह महिलाओं का नृत्य है, इसमें वे अपने सिर पर मिट्टी की मटकी रखती हैं। इस मटकी के चारों ओर छोटे-छोटे छेद किये होते हैं।
मटकी के भीतर दीपक जलाकर रखा जाता हैं। छेद के माध्यम से दीपक की रोशनी बाहर छिटकती रहती है, रात्रि में ये किरणें बड़ी सुहावनी लगती हैं।
छेद वाली इस मटकी को ‘घुड़ला’ कहते हैं।
वि.सं. 1548 में अजमेर के मल्लूखां ने मेड़ता पर चढ़ाई की। वह पीपाड़ के पास कोसाना ग्राम में गोरी पूजा के लिए आई हुई 141 स्त्रियों को ले भागा। इसकी सूचना जब जोधपुर के राव सांतलजी को लगी तो उन्होंने तत्काल पीछा किया। वे नगर कन्याओं (तीजणियों) को तो छुड़ा लाये किन्तु युद्ध के दौरान वे इतने घायल हो गये कि बच नहीं पाये। मल्लूखां की सेना का प्रधान सेनानायक घडूला था जो मुठभेड़ में मारा गया। उसका सिर काटकर उन तीजणियों को दे दिया गया जिन्होंने उसे थाली में रखकर घर-घर घुमाया और इस भावना का संचार किया कि कन्याओं के अपहरणकर्त्ताओं को ऐसा दंड मिलता है।
इस नृत्य के अवसर पर गाया जाने वाला प्रमुख गीत –
घुड़लो घूमेला जी घूमेला
घुड़ले रे बांध्यो सूत घुड़लो घूमेला जी घूमेला
पाड़ोसण जायो पूत घुड़लो घूमेला जी घूमेला
सवागण बारे आव घुड़लो घूमेला जी घूमेला
मोत्यां रा आखा लाव घुड़लो घूमेला जी घूमेला
इस नृत्य में वाद्य यंत्र ढोल, बांकिया, थाली आदि होते हैं।
10. वालर नृत्य
यह सिरोही, पाली, आबू व जालौर के आदिवासी गरासियों का प्रमुख नृत्य हैं। इसके दो प्रकार है –
(1) एक प्रकार जिसमें केवल गरासियाँ महिलाएँ ही भाग लेती हैं।
(2) दूसरे प्रकार में गरासिया स्त्री एवं पुरुष दोनों भाग लेते हैं।
यह नृत्य एक प्रकार से ‘घूमरा’ का पर्याय भी कहा जाता है।
स्त्रियों द्वारा नाचे जाने वाला ‘वालर’ वाद्य विहीन होता है। जबकि स्त्री-पुरुष युगल रूप में किया जाने वाले ‘वालर’ में ढोल बजाया जाता है।
इस नृत्य की शुरुआत में एक पुरुष हाथ में छाता या तलवार लेकर नृत्य प्रारम्भ करता है।
वालर के गीतों में गरासियों के गौरवमय इतिहास तथा स्वाभिमानी शूरमाओं द्वारा राजाओं और अग्रेजों से लोहा लेने का शौर्यपरक विवरण मिलता है।
प्रसिद्ध वालर नतृक – जवाहरलाल
11.भैरव नृत्य
होली के दो दिन बाद ब्यावर में बादशाह-बीरबल का मेला भरता है। इस दिन पूरे शहर में बादशाह की सवारी निकाली जाती है।
मेले का मुख्य आकर्षण बीरबल होता है जो सवारी के आगे मयूर नृत्य करता चलता है। यह नृत्य लगातार दो दिन तक चलता है। यह शक्ति दिव्य शक्ति होती है जो भैरव शक्ति की प्रतीक कही जाती है।
भैरव शक्ति को प्राप्त करने के लिए ‘बीरबल’ सवारी में आने से पूर्व भैरव मंदिर में जाता है और एक घंटे तक उपासना के रूप में नृत्य करता है जो भैरव नृत्य के नाम से जाना जाता हैं।
इस नृत्य से भैरव, बीरबल पर रीझ कर इतनी शक्ति देता है कि बीरबल लगातार सवारी में नृत्य करता अथक बना रहता हैं।
भैरव से अपार शक्ति प्राप्त कर बीरबल बादशाह की सवारी में जो नृत्य करता है वह मोर नृत्य या मयूर नृत्य के नाम से जाना जाता है।
सवारी में बादशाह बना व्यक्ति अकबर के नौ रत्नों में से एक टोडरमल का स्वरूप है।
सवारी के दौरान शहर के सभी स्त्री-पुरुष-बच्चे बादशाह से खर्ची की मांग करते हुए ‘खर्ची दो, खर्ची दो’ कहते हैं। बादशाह खर्ची के रूप में रंग-बिरंगी अबीर-गुलाल की पुड़िया फैंकता-लुटाता चलता है।
बीरबल का पात्र (बाना) व्यास परिवार के व्यक्ति धारण करते हैं।
12. भवाई नृत्य
यह व्यावसायिक नृत्य है।
यह मूलतः मटका नृत्य है किन्तु भवाई जाति में प्रचलित होने के कारण इसका नाम ‘भवाई’ पड़ा।
भवाई नृत्य के प्रवर्तक ‘बाघाजी (नागोजी)’ है परन्तु इस नृत्य को विशिष्ट पहचान भारतीय लोक-कला मण्डल (उदयपुर) के संस्थापक देवीलाल सामर ने एक भील दयाराम के माध्यम से दिलाई।
यह नृत्य व्यावसायिक नृत्यों में सर्वाधिक चर्चित हैं।
भवाई नर्तक अपने सिर पर मटका लिये रहता है। मटकों की संख्या एक से लेकर एक के ऊपर एक करके पंद्रह-बीस तक होती है।
भवाई एक कलात्मक जाति है जो परम्परा से रात-दिन ख्याल-तमाशे कर अपने यजमानों को रिझाती आई है।
भवाई में नृत्य नाटिकाएँ – शंकरिया, ढोलामारू, बीकाजी, सूरदास, बड़ी डोकरी
यह नृत्य मुख्यतः पुरुष प्रधान है।
प्रथम भवाई महिला नर्तक – पुष्पा व्यास (जोधपुर)
प्रमुख भवाई कलाकार – रूपसिंह शेखावत (जयपुर), स्वरूप पंवार-तारा शर्मा (बाड़मेर)
भीलवाड़ा के कलाप्रेमी निहाल अजमेरा ने अपनी पौत्री वीणा को इस नृत्य में प्रवीण करते हुए 63 मंगल कलश का नृत्य तैयार कर उसका नाम ‘ज्ञानदीप’ दिया।
जयपुर की अश्मिता काला ने 111 घड़े सिर पर रखकर नृत्य करके ‘लिम्का बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड’ में अपना नाम दर्ज कराया।
द्रोपदी, कजली, कुसुम, श्रेष्ठा सोनी (उदयपुर) प्रसिद्ध भवाई नृत्यांगना हुई।
तेज तलवार पर नृत्य करना, काँच के टूकड़ों पर नृत्य करना आदि भवाई नृत्य की प्रमुख विशेषता है।
भवाई नृत्य :- सिर पर 7-8 मटके रखकर नृत्य करना, जमीन पर से मुँह से रुमाल उठाना, गिलासों पर नाचना, थाली के किनारों पर नृत्य करना, तलवारों की धार पर नृत्य करना आदि इसकी कलात्मक अदाकारियाँ हैं। इस नृत्य में बोरा-बोरी, सूरदास, लोड़ी वड़ी, डोकरी, शंकरिया, बीकाजी, ढोलामारु आदि प्रसंग होते हैं।
13. अग्नि नृत्य
दहकते अंगारो पर महकते फूलों की तरह जसनाथी सम्प्रदाय के लोगों द्वारा किया जाने वाला प्रमुख नृत्य।
इस नृत्य का जन्म स्थल कतरियासर (बीकानेर) माना जाता हैं।
जसनाथ जी के मंदिर में मेले भरते है और जुम्मे-जागरण के साथ-साथ अग्नि नृत्य के आयोजन होते हैं। गाने वाले भी ये ही सिद्ध और नाचने वाले भी ये ही सिद्ध।
शमी वृक्ष (खेजड़ी) की ढेर-सी लकड़ियां एकत्र कर चबूतरा सा बना दिया जाता है। इन लकड़ियों की आंच बहुत तेज होती हैं। जब लकड़ियां जलकर अंगारों के रूप में दहकने लगती है तब गायक विशेष सबद गाना प्रारम्भ कर देते हैं। तभी जसनाथी अंगारों के मंच पर जा कूदते है। यहां अंगारों की अंगुलियां भर-भर उछालते हैं जैसे पानी की बूंदे उछाली जाती है।
यहां कोई तन्त्र-मन्त्र या टोटका नही। केवल सिद्धाचार्य जसनाथजी की असीम कृपा है। ‘फतैह-फतैह’ कहकर ‘धुणा’ की अग्नि पर कूदने का यह आश्चर्यजनक कमाल देखते ही बनता है।
इस नृत्य में आग, राग व फाग तीनों का समन्वय है।
जसनाथी सिद्ध रूस्तमजी ने औरगंजेब को परचा दिखलाया।
जसनाथी सिद्ध गृहस्थी होते हैं।
आश्विन, माघ व चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की सप्तमी को जसनाथी सिद्धों का अग्नि नृत्य आयोजित होता है।
इस सम्प्रदाय में रहने वालों के लिए 36 नियम पालने आवश्यक है। इन नियमों का पालनकर्ता जसनाथी कहलाता है।
जसनाथ जी को कतरियासर की जमीन ‘सिकन्दर लोदी’ ने भेंट की थी।
इस नृत्य के साथ-साथ नगाड़ा वाद्य यंत्र बजाया जाता है।
इस नृत्य में केवल पुरुष भाग लेते हैं। वे सिर पर पगड़ी, अंग में धोतीकुर्ता और पांवों में कड़ा पहनते हैं।
14. तेरहताली नृत्य
कामड़ जाति की महिलाओं द्वारा (बहुएँ) किया जाने वाला व्यावसायिक नृत्य।
कामड़ जाति बाबा रामदेवजी की उपासक है जो रामदेवजी के मेले में रात-रात भर भजन तथा ब्यावले गाते हैं और इस जाति की महिलाएँ तेरहताली का प्रदर्शन करती है।
पुरुष महिलाओं के साथ तानपुरा (तंदुरा) पर भजन गाता है।
इस नृत्य के समय रामदेवजी महाराज की तस्वीर या फिर प्रतीक रूप में उनको चढ़ाया जाने वाला कपड़े का घोड़ा रखते है।
तेरहताली का प्रदर्शन तेरह मंजीरों की सहायता से किया जाता है। तेरह मंजीरों की निरन्तर चलती रहती संगीत लहरी में जमीन पर बैठे-बैठे तो कभी लेटे-लेटे कामड़ महिलाएं तेरह प्रकार के भावांग प्रस्तुत करती है।
तेरह मंजीरो में नौ मंजीरे दांये पाव पर बांधे जाते हैं। दो हाथों के दोनों और ऊपर कोहनी की जगह तथा एक-एक दोनों हाथों में रहते है। हाथ वाले मंजीरे अन्य मंजीरो से टकराते-छूते हुए टन-टन की ध्वनि देते है। इसी ध्वनि के साथ-साथ कामड़ औंरते विविध हावभाव व्यक्त करती है।
इस नृत्य की प्रसिद्ध नृत्यांगना है – मांगीबाई, दुर्गाबाई (पादरला, पाली)
पादरला गांव (पाली) कामड़ पंथियों का प्रमुख केन्द्र है।
तेरहताली नृत्य में निम्न प्रदर्शन किये जाते हैं –
(1) अनाज कूटना (2) उसे साफ करना (3) चक्की में पीसना (4) आटा गूंदना (5) आटे से रोटले पोना (6) दूध दूहना (7) दही बिलोना (8) मक्खन निकालना (9) चरखा चलाना (10) सूत लपेटना (11) नेजा बुनना (12) सिर पर कलश रखना (13) खेत में खड़ी पकी फसल काटना। इस प्रकार के तेरह प्रकार के हाव-भाव व्यक्त किये जाते हैं।
जहां-जहां कामड़ बस्ती होती है वहां-वहां रामदेवजी का मंदिर अवश्य होता है।
सभी कामड़ पुरुष अपने सिर पर ‘भगवा रंग’ का साफा धारण करते है।
तेरहताली प्रदर्शन के समय अब तो रामदेवजी की विरूदावली के भजन ही मिलते है किन्तु इनसे पूर्व देवी हिंगलाज के भजन गाये जाते थे।
15. चरी नृत्य
किशनगढ़ (अजमेर) अँचल में गूजर महिलाओं द्वारा किया जाने वाला प्रसिद्ध नृत्य।
नृत्य करने वाली महिलाएं अपने सिर पर पीतल की बनी ‘चरी’ (चरवी) रखती है जिसमें काकड़े यानी कपास के बीजों में तेल डालकर आग प्रज्वलित की हुई रहती है।
इस नृत्य में गोल घेरे में भीतर की ओर घूंघट धारिणी महिलाएँ घूमर की तरह नृत्य करती है।
इस नृत्य में प्रमुख रूप से बांकिया, थाली बजाये जाते है तथा आठ मात्रा का कहरवा विलम्बित रूप में बजता है।
किशनगढ़ की फलकूबाई ने इस नृत्य को जगजाहिर किया।
यह नृत्य शुभ, मंगल एवं स्वागत का प्रतीक है।
चरी नृत्य के लिए पुरस्कृत नृत्यांगना – सुनीता रावत
गुर्जर महिलाएं नाक में बड़ी नथ पहनती है।
यह नृत्य पूर्व में (राज परिवार में) गणगौर के अवसर पर किया जाता था।
16.झूमर नृत्य
गुर्जर और बड़गुर्जर जाति की महिलाओं में प्रचलित यह नृत्य फूलों के शृंगार के लिए प्रसिद्ध है।
इस नृत्य में झूमरा आभूषण, झूमरा वाद्य का प्रयोग होता है तथा यह नृत्य झूम-झूम कर किया जाता है इसलिए इसका नामकरण यह पड़ा।
रामदेवजी (लोकदेवता) की मुँह बोली बहिन डालीबाई ने इस नृत्य को आगे बढ़ाया।
यह नृत्य देवता की आराधना के समय किया जाता है।
माउण्ट आबू में नक्की झील के किनारे गरासिया स्त्रियां भी झूमर नृत्य करती है।
17.बिछुड़ो नृत्य
यह कालबेलिया स्त्रियों का लोकप्रिय नृत्य है।
इस नृत्य के साथ छोटा चंग बजाया जाता है।
इस नृत्य के साथ गाया जाने वाला गीत बिछुड़ा है अतः इसी नाम से इस नृत्य की पहचान कायम हुई।
कालबेलिया जाति सांप, बिच्छू का जहर उतारने में माहिर होती है।
इस नृत्य में गीत का भाव है कि गेंद खेलते समय उसे बिच्छू ने काट खाया अतः वह पति से कह रही है कि वे झाड़ा डाकर उस पर चढ़ा जहर उतारे।
प्रसिद्ध गीत –
तालेरिया रमती ने म्हाने बिच्छू घणे रो खायो सा
अर र र र र गई मर रे रे रे उतार साजन बिछुड़ो
म्हैं तो दड़ी खेलवा गई सा
चढ़ग्यो म्हाने वैरी बिछुड़ो
18. चकरी नृत्य
यह व्यावसायिक नृत्य है जो छबड़ा (बारां) व किशनगंज (बारां) में कजंर जाति की महिलाओं द्वारा किया जाता है।
इसे ‘फूंदी’ नृत्य भी कहा जाता है मुख्य वाद्य ढ़ोल तथा चंग होते हैं।
यह नृत्य सामान्यतः बूंदी के ‘कजली तीज’ के मेले पर सर्वाधिक आयोजित किया जाता है।
वर्तमान में प्रमुख नृत्यागंना – शांति, फिलमां और फुलवां
चकरी का पूर्व नाम राई (राही) था जो राह चलों को आकर्षित कर लेता था।
इस नृत्य में नाचने वाली लड़कियां कुंवारी होती है जो अच्छी बनीठनी रहती है।
सन् 1974 में चांचोड़ा के रशीद अहमद पहाड़ी ने इस नृत्य को अपने सीमित क्षेत्र से बाहर निकाला तब से इस नृत्य में पूरे संसार में प्रसिद्धि पाई।
‘कज्जा’ उस व्यक्ति को कहते है जो बस्ती में जाकर अच्छा नाचने वाला का पता लगाता था।
19. कच्छीघोड़ी नृत्य
शेखावाटी क्षेत्र में किया जाने वाला प्रसिद्ध व्यावसायिक नृत्य।
काठ की बनी वह घोड़ी जो कमर में पहन कर नचाई जाती है, कच्छीघोड़ी, कहलाती है।
राजस्थान में कच्छीघोड़ी नृत्य करने वाली प्रमुख जातियां – ढोली, कुम्हार, सरगरे, भांभी, मुसलमान तथा बावरी।
यह नृत्य प्रायः ब्याह-शादियों के अवसर पर किया जाता है।
इस घोड़ी नाच के साथ कहीं-कहीं पर एक सी-स्वांगिया भी होता है। इन दोनों के आपस में दोहों के बड़े चुटकीले सवाल-जवाब चलते रहते है जो मीठे, रोचक और सरस शृंगारमूलक होते हैं।
गांछो द्वारा निर्मित होने के कारण कच्छीघोड़ी को ‘गांछाघोड़ी’ भी कहते है।
नृत्यकार के पांवो में घुंघरू बंधे रहते है। हाथों में तलवार तथा ढाल रहती है। ढोल, ताशे तथा झांझ के साथ जब नृत्यकार के पांव घोड़ी के पांव बन नृत्य को उतर पड़ते है।
इस नृत्य में घोड़ी नृत्यकार मराठे तथा प्यादि मुगल सिपाही के प्रतीक होते हैं।
यह नृत्य वीर रस प्रधान है।
मुख्य वाद्य- ढोलक, झांझ, डेरु, बांकिया, शहनाई आदि है।
प्रसिद्ध कलाकार – जोधपुर का छवरलाल गहलोत तथा निवाई (टोंक) के गोविन्द पारीक
20. मोहिली नृत्य
यह एक विवाह नृत्य है, इसका प्रचलन स्थल धारियावद-कांठल क्षेत्र (प्रतापगढ़) है।
यह स्त्रियों द्वारा किया जाने वाला धीमी गति का गोलाकार नृत्य है। इसे ‘मोहुलो’ नाम से भी जाना जाता है।
मोहिली का अर्थ-गोल से है।
कहीं कहीं पर इसका नाम भवाली, भौली भी प्रचलित है।
21. रणबाजा नृत्य
यह एक युद्ध नृत्य है जिसका प्रचलन मेवों में अधिक देखने को मिलता है।
प्राचीन काल में युद्ध में जाने वालों को उत्साहित करने के लिए इसका आयोजन किया जाता था।
इस नृत्य में नृर्तक युद्धकालीन वेशभूषा में सजे होते है।
नर्तकों के हाथों में तलवार, ढाल, कटार, भाला, बर्छी आदि होते हैं जो युद्ध के ही शौर्यपरक शान है।
22. घूमर-घूमरा नृत्य
यह एकमात्र शोक सूचक नृत्य है। इसका प्रचलन वागड़ क्षेत्र के बाह्मण समुदाय में है।
जब किसी महिला के पति का निधन हो जाता है तब उस महिला को उसके पीहर ले जाकर सम्पूर्ण शृंगार कराया जाता है। उसे कौर किनारी वाली अच्छी पोशाक पहनाई जाती है। उसके हाथों में मेहदी रचाई जाती है। काजल बिन्दी लगाई जाती है। शीश गूंथा जाता है तथा पूरा शरीर आभूषणों से अलंकृत किया जाता है उसके बाद वह अपने पति-गृह लाई जाती है और उसके बाद ही मृतक की अर्थी श्ममान ले जाई जाती है।
अर्थी श्मशान ले जाने से पहले विधवा हुई महिला को बीच गोलाई में बिठाकर उसके चारों ओर दो घेरे में महिलाओं के दो समुदाय मिलकर रूदन नृत्य करते हैं।
इसमें पहला घेरा विधवाओं का तथा दूसरा घेरा सधवा महिलाओं का होता है।
23. गोगा नृत्य
लोकदेवता गोगाजी की आराधना में किया जाने वाला नृत्य।
यह नृत्य मुख्य रूप से गोगा नवमी (भाद्रपद कृष्णा नवमी) पर जहाँ गोगाजी के मेले भरते है वहां किया जाता है।
इस नृत्य में भाग लेने वाले नर्तकों के गले में सर्प टंगे होते है। इनके साथ कुछ वादक होते हैं जो डेरू, ढोल और कटोरा बजाते चलते है।
राह चलते-चलते यह नृत्य किया जाता है अतः इसे एक यात्रा नृत्य भी कहा जाता है।
लोहे की साँकल पीठ पर मारकर किया जाने वाला नृत्य।
24. ढोल नृत्य
पेशेवर नृत्य की श्रेणी में जालोर का ढोल नृत्य बहुत प्रसिद्ध है।
इस नृत्य में भाग लेने वाली प्रमुख जातियां – ढोली, सरगरा तथा भील है जो विवाह के अवसर पर नाचते है।
इस नृत्य की शुरूआत ढोल वादक ‘थाकना’ शैली से करता है जिसमें एक साथ चार-पांच ढोल बजाए जाते है।
ढोल वादक एक साथ तीन-तीन ढोल भी रखता है। ऐसी स्थिति में एक सिर पर, एक आगे तथा एक पीछे कमर तक लटकता रहता है।
जालोर के ढोल नृत्य की प्रसिद्धि के संबंध में सीवाणा गांव के खीमसिंघ राठौड़ एवं एक सरगरी जाति की महिला के प्रेम की गौरव गाथा जुड़ी हुई है।
‘थाकना’ का शाब्दिक अर्थ है नृत्य के लिए बुलाना या नर्तकों में जोश भरना।
25.फूंदी नृत्य
यह नृत्य सभी जाति की महिलाओं द्वारा किया जाता है।
विवाह में विशिष्ट अवसरों पर मुख्यतः फूंदी ली जाती है।
किसी भी नृत्य के बीच में उसकी शोभा द्विगुणित करने के लिए फूंदी ली जाती है।
इस नृत्य में दो महिलाएँ आमने-सामने होकर एक-दूसरी के विपरीत, हाथ में हाथ थामे पांवो पर जोर देती हुई तनिक पीछे झुकती नृत्य मग्न होती है।
इस नृत्य में चोटी के साथ बालों में फूंदी गुंथी जाती हैं जिसकी रंगबिरंगी लटकने ठेठ नीचे तक होती है।
फूंदी लड़कियां भी लेती हैं तब अन्य लड़कियां ताली बजाती हुई ‘फूंदी रो फड़ाको जिये बाई रो काको’ पंक्ति उच्चारित करती है।
25. हुरंगा नृत्य
डीग (भरतपुर) में होली के अवसर पर किया जाने वाला प्रमुख नृत्य।
26. कत्थक नृत्य
कत्थक का आदिम घराना – जयपुर
कत्थक का प्रचलित घराना – लखनऊ
प्रसिद्ध कत्थक नृत्यागंना – उमा शर्मा
27. पेजण नृत्य
यह नृत्य बांसवाड़ा में दीपावली पर नारी का रूप धारण किये हुए पुरुषों द्वारा किया जाता है।
28. नाहर नृत्य
होली के अवसर पर यह नृत्य मांडलगढ़ (भीलवाड़ा) में किया जाता है।
इस नृत्य को प्रारंभ करने का श्रेय शाहजहाँ को दिया जाता है।
29. चरकूला नृत्य
यह नृत्य मूलतः उत्तर प्रदेश का है।
इस नृत्य का सर्वाधिक प्रचलन भरतपुर जिले में है।
यह नृत्य राधा की स्मृति में बेलगाड़ी के पहिए पर 108 दीपक जलाकर किया जाता है।
30. खारी नृत्य
मेवात (अलवर) में दुल्हन की विदाई पर उनकी सहेलियों द्वारा अपने हाथों की चुड़ियां बजाते हुए किया जाने वाला नृत्य।
31. थाली नृत्य
इस नृत्य में थाली को हाथों की अंगुलियों पर घुमाया जाता है।
यह नृत्य पाबूजी के भक्तों द्वारा फड़ बाँचते समय किया जाता है।
32. नौंटकी
इस नृत्य का प्रारम्भ उत्तर प्रदेश से माना जाता है।
भरतपुर में राजा भतृहरि की नौटंकी, राजा हरिश्चन्द्र की नौंटकी आदि प्रसिद्ध है।
33. सांग नृत्य
सांग से तात्पर्य स्वांग से है। सहरिया जाति के स्त्री-पुरुष का यह समूह नृत्य है।
इसका आयोजन प्राकृतिक वातावरण में जंगलों और पहाड़ियों के बीच होता है। इसमें पुरुष और महिलाएं भाग लेते हैं।
नर्तक पत्थर और जड़ी बूंटियों के विविध रंगों से अपने तन को विशेष रूप से सजाते हैं और भांति-भांति के स्वांग धारण करते हैं।
इन स्वांगों में मनुष्य, देवी-देवता, जानवर, पक्षी तथा भूत प्रेत आदि से सम्बन्धित सभी तरह के स्वांग होते हैं।
34. शूकर नृत्य
शूकर से तात्पर्य सूअर से है। यह स्वांग-नृत्य है। इसमें प्रमुख आकर्षण सूअर बने नर्तक से है। इसे देखकर जन-साधारण में खलबली मच जाती है।
नर्तक कलाकार शिकारी वेश में धोती के ऊपर घुटनों तक घुंघरू बांधे रहता है। बगलबंडी पर कमर में चमड़े का चौड़ा पट्टा बंधा रहता है। सिर पर पगड़ी तथा हाथ में लम्बी छड़ी रहती है जिससे वह सूअर द्वारा नाना प्रकार की नृत्यभंगिमाओं से दर्शकों को लोटपोट किये रहता है। इसके साथ शिकारी भी शिकार करने की मुद्रा लिये सूअर के पीछे नृत्य करता हुआ सबको अपनी ओर खींचे रहता है।
नृत्य के समय अनेक भावों का प्रदर्शन बड़ा रोमांचकारी होता है।
इसके अन्तर्गत शिकारी के हाथ में तीर कमान रहता है। दूसरे के पास भाला होता है तथा इसके साथ एक कलाकार और होता है जो कुत्ते का स्वांग लिये होता है।
नृत्यमयी मुद्राओं में कुत्ता लिये शिकारी कभी-कभी दर्शकों के पीछे अपने कुत्ते को ‘लगैछू‘ कर भगदड़ सा माहौल पैदा कर हंसी मजाक की ठिठोली प्रस्तुत करता है।
ढोल और थाली मुख्य वाद्य हैं। ढोल की आवाज बड़ी तेजी लिये होती है।
यह नृत्य होली के दिनों में जालोर की ओर देखने को मिलता है।
तहसील आहोर (जालौर) का बिजली गांव इस नृत्य के लिये प्रसिद्ध है। अब यह नृत्य लुप्त प्राय ही है।
क्षेत्रीय लोक नृत्य
– गीदड़ नृत्य :- शेखावटी क्षेत्र में होली के अवसर पर केवल पुरुषों द्वारा किया जाने वाला नृत्य।
– चंग नृत्य :- शेखावटी क्षेत्र में होली के दिनों में पुरुषों द्वारा किया जाने वाला नृत्य।
– नाहर नृत्य :- माण्डल (भीलवाड़ा) में। उद्भव :- शाहजहाँ के शासनकाल से।
– डांग नृत्य :- नाथद्वारा (राजसमन्द) क्षेत्र में होली के अवसर पर किया जाने वाला नृत्य।
– बिंदौरी नृत्य :- झालावाड़ क्षेत्र का प्रमुख नृत्य।
– अग्नि नृत्य :- उद्गम :- कतरियासर (बीकानेर)। जसनाथी सम्प्रदाय का नृत्य।
– ढोल नृत्य :- जालौर में सांचलिया सम्प्रदाय में किया जाने वाला नृत्य।
– बम नृत्य :- अलवर-भरतपुर। (होली के अवसर पर)
– डांडिया नृत्य :- मारवाड़।
खांडे :- गैर नृत्य में प्रयुक्त डंडे।
लांगूरिया नृत्य :- कैलादेवी (करौली) की आराधना में किया जाने वाला नृत्य है।
गम्मत :- गवरी लोकनाट्य में किया जाने वाला सामूहिक नृत्य।
– सिरोही क्षेत्र में गरासियों के प्रसिद्ध नृत्य ‘वालर नृत्य’ में वाद्य यंत्र का प्रयोग नहीं होता है।
– फलकूबाई (किशनगढ़) का सम्बन्ध चरी नृत्य से है।
– गरबा गुजरात का लोक नृत्य है। राजस्थान में गरबा नृत्य बाँसवाड़ा व डूंगरपुर क्षेत्र में प्रचलित है।
भारत के शास्त्रीय नृत्य
नृत्य
कलाकार
भरतनाट्यम – तमिलनाडु-केरल
रुक्मिणी देवी, यामिनी कृष्णमूर्ति, मृणालिनी साराभाई, सोनल मानसिंह
कथकली – केरल
कत्थक – उत्तर भारत
बिरजू महाराज, पण्डित दुर्गालाल, मालविका मित्रा
कुचिपुड़ी – आन्ध्र प्रदेश
स्वप्न सुन्दरी, शोभा नायडू
ओड़िसी – ओड़िसा
शुभा मुद्गल, केलुचरण महापात्र
मोहिनीअहम – केरल
शृंगार प्रधान नृत्य
अन्य नृत्य
– बिहू नृत्य, बाँस नृत्य :- असम
– छऊ नृत्य :- बिहार
– गरबा नृत्य :- गुजरात
– गिद्दा नृत्य :- पंजाब
– यक्षगान :- कर्नाटक
– पंडवानी :- छत्तीसगढ़। (प्रसिद्ध नृत्यांग्ना – तीजनबाई)