बाल विकास (Bal vikas )

बाल विकास (Bal vikas )

बाल विकास का इतिहास –

1. 18 वीं शताब्दी मे सर्वप्रथम ‘पेस्टोलॉजी’ के द्वारा बाल विकास का वैज्ञानिक प्रस्तुत किया।
2. पेस्तालॉजी ने अपने ही 3 वर्षीय पुत्र पर अध्ययन किया तथा बेबी बायोग्राफी तैयार की।
3. 19वीं शताब्दी में अमेरिका में बाल अध्ययन आन्दोलन की शुरूआत हुई इसके जन्मदाता स्टेनली हॉल
4. स्टेनली ने चाइल्ड स्ट्डी सोसायटी व ब्भ्प्स्क् ॅमसिंतम व्तहंदपेंजपवद जैसी संस्थाओ की स्थापना की।
5. 1887 में न्यूयॉर्क में सबसे पहला ‘बाल सुधार गृह’ स्थापित किया गया।
6. भारत में बाल विकास के अध्ययन की शुरूआत लगभग 1930 से मानी जाती है।

7. अभिवृद्धि व विकास में अन्तर

अभिवृद्धि विकास

1. केवल शारीरिक पक्ष में होने वाला परिवर्तन सम्पूर्ण पक्षों में होने वाला परिणाम
2. संकुचित अर्थ व्यापक अर्थ
3. बाह्य स्वरूप बाह्य व आंतरिक स्वरूप
4. कछ समय पश्चात् रूक जाना जीवनपर्यन्त चलना
5. केवल आकार बढ़ने का सम्बधित सम्पूर्ण परिवर्तनों से सम्बधित
6. सीधे माया-तौला जा सकता है। सीधे मापन संमद नदीं
7. परिमाणात्मक/मात्रात्मक/संख्यात्मक परिमाणात्मक व गुणात्मक
8. रचनात्मक रचनात्मक व विनासात्मक
9. विवृद्धि सूचक विवृद्धि सूचक व हाथ सूचक

नोट : रचनात्मक परिवर्तन व्यक्ति को किशोरावस्था की ओर ले जाता है जबकी विनासात्मक परिवर्तन व्यक्ति को वृद्धावस्था की ओर ले जाता है।

विकास की परिभाषा –

गैंसल :- विकास एक तरह का परिवर्तन है क्योकि इसी से बालक में नवीन योजनाओं व विशेषताओं का विकास होता है।

ब्रुनर :- विकास की किसी भी अवस्था में कुछ की सीखाया जा सकता है।

बर्क :- बाल विकास मनोविज्ञान की वह शाखा है, जिसके अन्तर्गत जन्म पूर्व अर्थात् गर्भावस्था से किशोरावस्था अथवा परिपक्वता तक होने वाले विकास का अध्ययन किया जाता है।

श्रीमती हरलॉक ने विकास क्रम में होने वाले परिवर्तनों चार भागों के बांटा

1. आकार में परिवर्तन
2. अनुपात में परिवर्तन
3. पुराने चिह्नों का लोप (जैसे – दुध का दांत)
4. नवीन चिह्नो का उदय (दाढी, मूछ आना)

विकास के नियम :-

1. समान प्रतिमान का नियम – विकास समान नियमों पर आधारित होता है इससे किसी प्रकार को भेदभाव नहीं होता है।

2. क्रमबद्धता का नियम/निश्चित श्रृखंला का नियम विकास का क्रमानुसार होता है।
3. सतत् विकास का नियम/निरन्तरता का नियम विकास जीवन पर्यन्त चलता रहता है।
4. परस्पर सम्बन्ध का नियम – विकास के चारो पल (शारीरिक मानसिक, सामजिक व सवैगात्मक) परस्पर सम्बन्धित होते है लेकिन सम्बन्ध शारीरिक व मानसिक विकास में होता है।

5ं सामान्य से विशिष्ट क्रियाओं का नियम – शिशु पहले से सामान्य क्रियाऐं करता है व उनके बाद विशिष्ट किया करता है।

6. निश्चित दिशा में नियम –

1) मस्तबोधमुखी नियम :- विकास हमेशा सिर से पैर की ओर अर्थात् ऊपर से नीचे की ओर होता है।
सेफेलोकोडल थ्योरी (सिर-धड़-हाथ-पैर)
2) निकट दूर नियम – विकास केन्द्र के सिरो की ओर
प्रोक्सिमोडिस्टल थ्योरी – अर्थात अन्दर से बाहर की ओर

7. व्यक्तिगत विभिन्नता का नियम – जन्म से ही कोई बालक प्रतिभाशाली होता है कोई सामान्य वृद्धि का होता है कोई मंद बुद्धि होता है।

8. विकास की गति से भिन्नता का नियम प्रतिभाशाली बालक का विकास तीव्रगति सामान्य बुद्धि का सामान्यगति से तथा मंद बुद्धि बालक का विकास मदं गति से होता है।

9. अन्तः क्रिया का नियम – देखकर, सुनकर व अनुकरण से सीखना पहले बालक की अपेक्षा दूसरा बालक तीवग्रति से सीखता है।

10. वर्तुलाकार का नियम – विकास केवल लम्बाई में ना होकर अर्थात् रेखीय न होकर चारों ओर होता है।

11. विकास में परावर्तन का नियम।

12. पूर्वनुमान/ पूर्वकथन/ अपिध्यावानी का नियम

13. विकास की प्रत्येक अवस्था के अपने-अपने खतरे होता है।
14. विकास की प्रत्येक अवस्था में सुख-शांति एक समान नहीं होती है।

15. प्रारंभिक विकास परवर्ती विकास की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण होता है।

16. वंशानुक्रम व वातवरण के गुणनफल का नियम – व्यक्ति का विकास वंशानुक्रम व वातावरण का प्रतिफल है,

व्यक्ति – वंशानुक्रम ;भ्द्ध ग वातावरण ;म्द्ध = सूत्र – वुडवर्थ

विकास को प्रभावित करने वाले कारक –

1. वशांनुक्रम – यह विकास को प्रभावित करने वाला पहला प्रमुख कारण है बालक को अपने माता-पिता व पूर्वजों की जो विशेषताएं जन्म या गर्भाधान के समय से प्राप्त होती है उसे वंशानुक्रम या आनुवशिकता कहते है।

वंशानुक्रम के सिद्धान्त :-

1. बीज मैन का जनन-दृव्य की निरन्तरता का सिद्धान्त :-
❖इस सिद्धान्त के अनुसार शरीर का निर्माण करने वाला ‘जनन-दृव्य’ कभी भी नष्ट नहीं होता, यह पीढ़ी दर पीढी निरन्तर हस्तानान्तरित होता रहता है।

❖यही कारण है कि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में निरन्तर गुणों का संचरण होता रहता है।

2. उपार्जित गुणों के असंचरण का सिद्धान्त (बीजमैन)
❖इस सिद्धान्त के अनुसार अर्जित गुणों का संचरण नहीं होता है।
❖समर्थक बीजमैन चूहों की पूछ काट दी गई।

3. उपार्जित गुणों के संचरण का सिद्धान्त (जैमार्क)
❖इस सिद्धान्त के अनुसार अर्जित गुणों का संचरण होता है।
❖समर्थक (लैमार्क) (जिराफ की गर्दन पर प्रयोग)

4. गॉल्टन का जीव सांख्यिकी/ बायोमेंट्री सिद्धान्त –
❖इस सिद्धान्त के अनुसार बालक के गुणों का संचरण केवल माता-पिता से न होकर पूर्वजों से भी होता है।

5. मैण्डल का सिद्धान्त

❖मैण्डल में मटर के दानों तथा काले व सफेद चुहों पर प्रयोग करके यह निष्कर्ष निकाला की एक ही माता-पिता से उत्पन्न संतानों में भी भिन्न्ता पाई जाती है।

वंशानुक्रम के नियम –

1. समानता का नियम – जैसे माता-पिता वैसी की संतान

2. भिन्नता का नियम – जैसे माता-पिता उनसे कुछ भिन्न सतांन

3. प्रत्यागमन का नियम – जैसे माता-पिता उनके ठीक विपरित संतान (बुद्धिमान माता-पिता की मूर्ख संतान)

2. वातावरण – यह विकास को प्रभावित करने वाला इसका प्रमुख कारक है। ’वातावरण’ का पर्यायवाची शब्द है ‘पर्यावरण’ जो कि दो शब्दों से मिलकर बना है – परि$आवरण।
परि का अर्थ – चारों ओर

आवरण का अर्थ – धेरने वाले

रॉस – वातावरण कोई बाहरी शक्ति है जो हमें प्रभावित करती है।

नोट – वातावरण के अन्तर्गत बालक एक उच्च संगठित ऊर्जा का है।

1. पारिवारिक वातावरण –
❖परिवार अनोपचारिक शिक्षा का मुख्य साधन है, जिसके अन्तर्गत मां की महत्वूपर्ण भूमिका होती है।

2. मां बालक की प्रथम गुरू होती है जिसके द्वारा संस्कारो की शिक्षा दी जाती है।

❖फ्रोबेल – माताएं आदर्श अध्यापिकाएं है तथा परिवार द्वारा दी जाने वाली अनौपचारिक शिक्षा महत्वपूर्ण व प्रभावशाली

❖पेस्टोलॉजी परिवार सीखने का सर्वोत्तम स्थान तथा बालक का प्रथम विद्यालय है।

परिवार के अन्तर्गत निम्न कारक :-

1. परिवार की आर्थिक स्थिति

2. माता-पिता का असन्तोषजनक व्यावहारिक जीवन

3. पक्षतापूर्ण व्यवहार

4. अत्यधिक ममता व लाड प्यार

5. कठोर नियंत्रण व अनुशासन

6. जन्मक्रम

2. विद्यालयी वातावरण

❖औपचारिक शिक्षा का मुख्य साधन है। विद्यालय

❖विद्यालय के अन्तर्गत महत्वपूर्ण भूमिका शिक्षक की होती

❖फ्रोबेल – शिक्षक बागोद्यान का कुशल माली है।

नोट – फ्रोबेल पूर्व प्राथमिक शिक्षा का जनक

❖इन्होने जर्मनी के स्लेकेनवग्र नामक स्थान पर 1837 में सबसे पहला पूर्व प्राथमिक विद्यालय किंडर गार्डन की स्थापना कर पूर्व-प्राथमिक शिक्षा को जन्म दिया।

विद्यालय के अन्तर्गत निम्न कारक आते है।

1. विद्यालय का भौतिक वातावरण

2. अनुचित् शिक्षा विधियां

3. दोषपूर्ण पाठ्यक्रम

4. बालक को समस्यात्मकः कहकर उसकी अवलेलेनन वस्त्रा

5. शिक्षक का व्यवहार

सामाजिक व सांस्कृति वातावरण –

1. आस -पड़ोस

2. मित्र व साथी

3. सिनेमा

4. परम्पराएं व रीति रिवाज

5. पूर्वाग्रह

6. खान-पान, रहन-सहन, भाषा सस्कृति

4. भौगालिक वातावरण
1. जलवायु

5. मनोवैज्ञानिक वातावरण

1. अभिप्रेरणा व पूनर्बलन

2. मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति

3. निर्देशन व परामर्श

4. प्रेम व सहानुभूति व्यवहार

6. जनसंचार माध्यम

1. रेडि़यों

2. टेलिफोन

3. मोबाईल

4. कम्प्यूटर

परिपक्वता एवं अधिगम

1 सर्वप्रथम ‘परिपक्वता’ शब्द का प्रयोग ‘अरनोल्ड गेसेलु’ के द्वारा

2. परिपक्तवा का सम्बंध ‘वशानुक्रम’ से होता है, जबकि ‘अधिगम’ का सम्बंध वातावरण से होता है।

3. विकास को प्रभावित करने वाले प्रमुख कारक – वंशानुक्रम व वातावरण इसके बाद महत्पूर्ण स्थान ‘परिपक्वता’ व अधिगम का है।

4. अधिगम पर परिपक्वता का प्रभाव पड़ता है लेकिन परिपक्वता पर अधिगम का प्रभाव नहीं पड़ता है।

5. अतः व्यक्ति का विकास वंशानुक्रम, वातावरण, परिवक्वता एवं अधिगम का प्रतिफल है।

विकास की अवस्थाएँ –

1. गर्भावस्था – गर्भ धारण से जन्म तक

2. शैशवावस्था – जन्म से 6 वर्ष

3. बाल्यावस्था – 7 से 12 वर्ष

4. किशोरावस्था – 13 से 18 वर्ष (तीन ऐज 13 से 19 वर्ष)

5. प्रोढ़ावस्था – 18 के बाद

1. गर्भावस्था –

1. 280 दिनों की होती है।
2. इसके अन्तर्गत 10 चन्द्रमास होते है। (1 चन्द्रमान -20)

3. साधारण शब्दों में 9 माह

गर्भावस्था की तीन अवस्वाएें

1. भ्रणीक अवस्था/बीजावस्था/डिम्बावस्था/रोपण अवस्था
(ळमतउपदंस वत व्अअउ चमतपवक)
1) गर्भधारण सें 2 सप्ताह
2) इस अवस्था में शिशु अण्डे की सम्न का होता है। इसका आकार पिन के हैड के बराबर होता है। जिसे ‘युक्ता’ कहा जाता है।
3) 10 दिनों तक यह अण्डा गर्भास्थ में इधर-उधर तैरता रहता है 10 दिनों तक उसे मां के द्वारा कोई आहार नहीं मिलता है।
4) 10 दिनों के बाद वह अण्डा गर्भाश्य की दिवार से चिपक जाता है। तथा इसे माँ के द्वारा आहार मिलने लगता है। इसे रोपण क्रिया के नाम से जाना जाता है।
5) इस अवस्था में कोष्ठ विभाजन की क्रिया शुरू हो जाती है।

2) भूणीय अवस्था/ पिण्डावस्था (म्उइतलवदपब च्मतपवक)
1) 2 सप्ताह से 2 माह
2) इस अवस्था में शरीर के सभी अंगों का निर्माण कार्य शुरू हो जाता है।
3) इस अवस्था के अंत तक भ्रूण को आसानी से पहचाना जा सकता है।
4) 2 माह के अंत तक शिशु का भार लगभग 2 ग्राम तथा लम्बाई 1 से 2 इंच हो जाती है।
3) भूण/गर्भास्था की अवस्था (थ्मजंस ैजंहम)
1) 2 माह से जन्म तक
2) इस अवस्था में किसी की नये अंग की उत्पति नहीं होती अपितु पूर्व निर्मित अंगों का पूर्ण विकास होता है।
3) चौथे माह के अंत तक षिषु के हृदय की धड़कने सूनी जा सकती है।
4) 5 माह के अंत तक शिशु के आन्तरिक अंग उसी प्रकार से कार्य करने लगते है जैसे- वयस्क के
5) जन्म के समय वह शिशु अपरिपक्प कहलाता है। जिसका वनज 2.5 किलो से कम होता है।

2) शैशवावस्था – जन्म से 6 वर्ष

❖श्रीमती हरलोक – जन्म से 2 सप्ताह को शैरावावस्था
❖इसे नवजात शिशु की संज्ञा की जाती है।
❖इस अवस्था में शिशु अपने समय का 80ः भाग सोने में निकालता है।
❖श्रीमती हरलोक : 2 सप्ताह से 2 वर्ष बचापनावस्था
3 से 6 वर्ष तक पूर्व बाल्यावस्था

रॉस : जन्म से 2 वर्ष शैशवास्था
3 से 6 वर्ष – पूर्व बाल्यावस्था
जॉन्स : जन्म से 6 वर्ष – शैशवावस्था

शैशवावस्था को निम्न नामों से जाना जाता है।

1) जीवन का सबसे महत्वपूर्ण काल – 0 से 3 वर्ष
2) भावी जीवन की आधार शिला – 0 से 3 वर्ष
3) सीखने का आदर्श कालु (वेलेन्राइन) – 0 से 3 वर्ष
4) सस्कारों के निमार्ण की आयु – 0 से 3 वर्ष
5) सीखने की आयु – 0 से 3 वर्ष
6) नाजुक अवस्था – 0 से 3 वर्ष
7) प्रिय लगने वाली अवस्था – 0 से 3 वर्ष तक
8) खतरनाक अवस्था (हरलोक) – 0 से 3 वर्ष तक
9) खिलौनो की आयु (पूर्व बाल्यावस्था) – 3 वर्ष से 6 वर्ष तक
10) लड़ने योग्य अवस्था – 3 वर्ष से 6 वर्ष
11) नृसरी स्कूल एन – 3 वर्ष से 6 वर्ष
12) पूर्व विद्यालय आयु/षालापूर्व आयु – 3 वर्ष से 6 वर्ष
13) टोली पूर्व आयु –
14) प्रारम्भिक विद्यालय की पूर्व तैयारी की अवस्था – 3 से 6 वर्ष
15) अतार्कित चिंतन की अवस्था –

शैशवावस्था के विकासात्मक कार्य व विशेषताऐं –

नोट – सर्वप्रथम ‘‘विकासात्मक कार्य का सम्प्रत्यय हौविग हर्स्ट के

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